Readings - Hindi

साँची कहौ तौ मारन धावै

वहाबियत की असलियत

खुर्शीद अनवर


हालांकि पहले भी आतंकवाद पर कोई बहस या बातचीत आम जन के दिमाग को सीधे इस्लाम की तरफ खींच ले जाती थी। लेकिन विश्व व्यापार केंद्र पर हमले और उसके बाद दो नारों ‘आंतकवाद के खिलाफ  जंग’ और ‘दो सभ्यताओं के बीच टकराव’ ने

ऐसी मानसिकता बनाई कि दुनिया भर में आम इंसानों के बीच एक खतरनाक विचार पैठ बनाने लगा कि ‘सारे मुसलमान आतंकवादी होते हैं’। कुछ ‘नर्मदिल’ रियायत बरतते हुए इसे ‘हर आतंकवादी मुसलमान होता है’ कहने लगे। था तो यह राजनीतिक षड्यंत्र, लेकिन आम लोग हर मुद्दे की तह में जाकर पड़ताल करके समझ बनाएं यह मुमकिन नहीं। मान्यताएं उनमें ठूंसी जाती हैं। जिसे ‘इस्लामी आतंकवाद’ कहा गया, वह दरअसल है क्या? यह आतंकवाद सचमुच इस्लामी है या कुछ और? अगर इस्लाम ही है तो इसकी जड़ें कहां हैं? इस तथ्य का खुुलासा करने के लिए एक शब्द का उल्लेख और उसका आशय समझ कर ही आगे बात की जा सकती है: ‘जिहाद’! आखिर जिहाद है क्या? इसकी उत्पत्ति कहां से हुई और आशय क्या था?

जिहाद की कुरान में पहली ही व्याख्या ‘जिहाद अल-नफस’ यानी खुद की बुराइयों के खिलाफ जंग है।

जब ऐसा है तो फिर अचानक वह जिहाद कहां से आया जो इंसानों का, यहां तक कि मासूम बच्चों का खून बहाना इस्लाम का हिस्सा बन गया। दुनिया भर में ‘इस्लामी’ आतंकवाद खतरा बन मंडराने लगा। पर कहां से आया यह खतरा?

इस्लाम जैसे-जैसे परवान चढ़ा, अन्य धर्मों की तरह इसके भी फिरके  बनते गए। एक रूप इस्लाम का शुरू से ही रहा और वह था राजनीतिक इस्लाम। जाहिर है कि सत्ता के लिए न जाने कितनी जंग लड़ी गर्इं और खुद मोहम्मद ने जंग-ए-बदर लड़ी। आसानी से कहा जा सकता है कि यह जंग भी मजहब को विस्तार देने के लिए लड़ी गई। मगर असली उद््देश्य था सत्ता और इस्लामी सत्ता। जंग-ए-बदर में सब कुछ वैसा ही हुआ जैसा किसी जंग में होता है, पर जिहाद की कुरान में दी गई परिभाषा फिर भी जस की तस रही। वर्ष 1299 में राजनीतिक इस्लाम ने पहला बड़ा कदम उठाया और आॅटोमन साम्राज्य या सल्तनत-ए-उस्मानिया की स्थापना हुई।  (1299-1922)। आम धारणा कि यह जिहाद के नाम पर हुआ, मात्र मनगढ़ंत है। सत्ता की भूख इसकी मुख्य वजह थी।

जिहाद की नई परिभाषा गढ़ी अठारहवीं शताब्दी में मोहम्मद इब्न-अब्दुल-वहाब ने, जिसके नाम से इस्लाम ने एक नया मोड़ लिया, जिसमें जिहाद अपने विकृत रूप में सामने आया। नज्त में जन्मे इसी मोहम्मद इब्न-अब्दुल-वहाब (1703-1792) से चलने वाला सिलसिला आज वहाबी इस्लाम कहलाता है, जो सारी दुनिया को आग और खून में डुबो देना चाहता है।

मोहम्मद इब्न-अब्दुल-वहाब के आने से बहुत पहले सूफी सिलसिला मोहब्बत का पैगाम देने और इंसानों को इंसानों से जोड़ने के लिए आ चुका था। इसका प्रसार बहुत तेजी से तुर्की, ईरान, अरब और दक्षिण एशिया में हो चुका था। सूफी सिलसिले से जो कर्मकांड जुड़ गए वह अलग मसला है, मगर हकीकत है कि सूफी सिलसिले ने इस्लाम को बिल्कुल नया आयाम दे दिया और वह संकीर्णता की जंजीरें तोड़ता हुआ इस्लाम की हदें भी पार कर गया।

सल्तनत-ए-उस्मानिया से लेकर फारस और अरब तक सूफी सिलसिलों ने जो दो बेहद महत्त्वपूर्ण काम अंजाम दिए वे थे गुुलाम रखने की परंपरा खत्म करना और स्त्री मुक्ति का द्वार खोलना।

फारस में मौलाना रूमी के अनुयायियों द्वारा मेवलेविया सिलसिले ने तेरहवीं सदी में औरतों के लिए इस सूफी सिलसिले के दरवाजे न सिर्फ खोले बल्कि उनको बराबर का दर्जा दिया। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सूफियों के संगीतमय वज्दाना नृत्य (सेमा) में पुरुषों और महिलाओं की बराबर की हिस्सेदारी होने लगी। मौलाना रूमी की मुख्य शिष्या फख्रंनिसां थी। उनका रुतबा इतना था कि उनके मरने के सात सौ साल बाद मेवलेविया सिलसिले के उस समय के प्रमुख शेख सुुलेमान ने अपनी निगरानी में उनका मकबरा बनवाया।

महान सूफी शेख इब्न-अल-अरबी (1165-1240) खुद सूफी खातून फातिमा बिन्त-ए-इब्न-अल-मुथन्ना के शागिर्द थे। शेख इब्न-अल-अरबी ने खुद अपने हाथों से फातिमा बिन्त-ए-इब्न-अल-मुथन्ना के लिए झोपड़ी तैयार की थी, जिसमें उन्होंने जिंदगी बसर की और वहीं दम तोड़ा।

मोहम्मद इब्न-अब्दुल-वहाब ने एक-एक कर इस्लाम में विकसित होती खूबसूरत और प्रगतिशील परंपराओं को ध्वस्त करना शुरू किया और उसे इतना संकीर्ण रूप दे दिया कि उसमें किसी तरह की आजादी, खुुलेपन, सहिष्णुता और आपसी मेलजोल की गुंजाइश ही न रहे। कुरान और हदीस से बाहर जो भी है उसको नेस्तनाबूद करने का बीड़ा उसने उठाया। अब तक का इस्लाम कई शाखाओं में बंट चुका था। अहमदिया समुदाय अब्दुल-वहाब के काफी बाद उन्नीसवीं सदी में आया लेकिन शिया, हनफी, मुलायिकी, सफई, जाफरिया, बाकरिया, बशरिया, खुलफिया हंबली, जाहिरी, अशरी, मुन्तजिली, मुर्जिया, मतरुदी, इस्माइली, बोहरा जैसी अनेक आस्थाओं ने इस्लाम के अंदर रहते हुए अपनी अलग पहचान बना ली थी और उनकी पहचान को इस्लामी दायरे में स्वीकृति बाकायदा बनी हुई थी।

इनके अलावा सूफी मत तो दुनिया भर में फैल ही चुका था और अधिकतर पहचानें सूफी मत से रिश्ता भी बनाए हुए थीं। लेकिन मोहम्मद इब्न-अब्दुल-वहाब की आमद और प्रभाव ने इन सभी पहचानों पर तलवार उठा ली। ‘मुख्तसर सीरत-उल-रसूल’ नाम से अपनी किताब में खुद मोहम्मद इब्न-अब्दुल-वहाब ने लिखा ‘जो किसी कब्र, मजार के सामने इबादत करे या अल्लाह के अलावा किसी और से रिश्ता रखे वह मुशरिक (एकेश्वरवाद विरोधी) है और हर मुशरिक का खून बहाना और उसकी संपत्ति हड़पना हलाल और जायज है।’

यहीं से शुरू हुआ मोहम्मद इब्न-अब्दुल-वहाब का असली जिहाद, जिसने छह सौ लोगों की एक सेना तैयार की और हर तरफ घोड़े दौड़ा दिए। तमाम तरह की इस्लामी आस्थाओं के लोगों को उसने मौत के घाट उतारना शुरू किया। सिर्फ और सिर्फ अपनी विचारधारा का प्रचार करता रहा और जिसने उसे मानने से इनकार किया उसे मौत मिली और उसकी संपत्ति लूटी गई। मशहूर इस्लामी विचारक जैद इब्न अल-खत्ताब के मकबरे पर उसने निजी तौर पर हमला किया और खुद उसे गिराया। मजारों और सूफी सिलसिले पर हमले का एक नया अध्याय शुरू हुआ। इसी दौरान उसने मोहम्मद इब्ने सांद के साथ समझौता किया। मोहम्मद इब्ने सांद दिरिया का शासक था और धन और सेना दोनों उसके पास थे। दोनों ने मिलकर तलवारों के साथ-साथ आधुनिक असलहों का भी इस्तेमाल शुरू किया। इन दोनों के समझौते से दूरदराज के इलाकों में पहुंच कर अपनी विचारधारा को थोपना और खुुलेआम अन्य आस्थाओं को तबाह करना आसान हो गया। अन्य आस्थाओं से जुड़ी तमाम किताबों को जलाना मोहम्मद इब्न-अब्दुल-वहाब का शौक-सा बन गया। इसके साथ ही उसने एक और घिनौना हुक्म जारी किया और वह यह था कि जितनी सूफी मजारें, मकबरे या कब्रें हैं उन्हें तोड़ कर वहीं मूत्रालय बनाए जाएं।

सऊदी अरब जो कि घोषित रूप से वहाबी आस्था पर आधारित राष्ट्र है, उसने मोहम्मद इब्न-अब्दुल-वहाब की परंपरा को जारी रखा। बात यहां तक पहुंच गई कि 1952 में बुतपरस्ती का नाम देकर उस पूरी कब्रगाह को समतल बना दिया गया जहां मोहम्मद के पूरे खानदान और साथियों को दफन किया गया था। ऐसा इसलिए किया गया कि लोग जियारत के लिए इन कब्रगाहों पर जाकर मोहम्मद और उनके परिवार को याद करते थे। अक्टूबर 1996 में काबा के एक हिस्से अल्मुकर्रमा को भी इन्हीं कारणों से गिराया गया। काबा के दरवाजे से पूर्व स्थित अल-मुल्ताजम जो कि काबा का यमनी हिस्सा है, उसके खूबसूरत पत्थरों को तोड़ कर वहां प्लाइवुड लगा दिया गया, जिससे कि लोग पत्थरों को चूमें नहीं, क्योंकि ऐसा करने पर वहाबी इस्लाम के नजदीक यह मूर्तिपूजा हो जाती है। अभी हाल में ‘द इंडिपेंडेंट’ की एक रिपोर्ट के अनुसार मक्का के पीछे के हिस्से में जिन खंभों पर मोहम्मद की जिंदगी के महत्त्वपूर्ण हिस्सों को पत्थरों पर नक्काशी करके दर्ज किया गया था, उन खंभों को भी गिरा दिया गया। इन खंभों पर की गई नक्काशी में एक जगह अरबी में यह भी दर्ज था कि मोहम्मद किस तरह से मेराज (इस्लामी मान्यता के अनुसार मुहम्मद का खुदा से मिलने जाना) पर गए।

वहाबियत इस्लाम के पूरे इतिहास, मान्यताओं, परस्पर सौहार्द और पहचानों के सह-अस्तित्व के साथ खिलवाड़ करता आया है। एक ही पहचान, एक ही तरह के लोग, एक जैसी किताब और नस्ली शुद्धता का नारा हिटलर ने तो बहुत बाद में दिया, इसकी बुनियाद तो वहाबियत ने उन्नीसवीं शताब्दी में ही इस्लाम के अंदर रख दी थी।

अरब से लेकर दक्षिण एशिया तक वहाबियत ने अपनी इस शुद्धता का तांडव बहुत पहले से दिखाना शुरू कर दिया था, लेकिन पिछले कुछ दशकों में इसने अपना घिनौना और क्रूर रूप और भी साफ कर दिया। जहां एक तरफ मेवलेविया सिलसिले ने तेरहवीं सदी में औरतों के लिए सिलसिले के दरवाजे न सिर्फ खोले बल्कि उनको बराबर का दर्जा दिया था, वहीं दूसरी तरफ वहाबी इस्लाम ने औरतों को जिंदा दफन करना शुरू कर दिया। बेपर्दगी के नाम पर औरतों के चेहरों के हिस्से बदनुमा करने और औरतों पर व्यभिचार का इल्जाम लगा कर उन पर संगसारी करके मार देने को इस्लामी रवायत बना दिया। वहाबियत पर विश्वास न रखने वाले मुसलमानों को इस्लाम के दायरे से खारिज करके उन्हें सरेआम कत्ल करना जायज और हलाल बताया जाने लगा। यह मात्र इस्लाम के अनुयायियों के साथ सलूक की बात है। अन्य धर्मों पर कुफ्र का इल्जाम लगा कर उन्हें खत्म करना, संपत्ति लूटना, उनकी औरतों को जबर्दस्ती वहाबियत पर धर्मांतरण करवाना इनके लिए एक आम बात बन चुकी है।

वहाबियत या वहाबी इस्लाम लगातार पूरी दुनिया के लिए खतरा बनता जा रहा है। मौत के इन सौदागरों की करतूत को आमतौर पर इस्लामी आतंकवाद का नाम दिया जाता है, जिसकी साजिश वाशिंगटन और लंदन में रची जाती है और कार्यनीति सऊदी अरब से लेकर दक्षिण एशिया तक तैयार की जाती है। अल-कायदा, तालिबान, सिपाह-ए-सहबा, जमात-उद-दावा, अल-खिदमत फाउंडेशन, जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा जैसे संगठन इस साजिश को अंजाम देकर लगातार खूनी खेल खेल रहे हैं।

दक्षिण एशिया में वहाबी इस्लाम की जड़ों को मजबूत करने का काम मौलाना मौदूदी ने अंजाम दिया। हकूमत-ए-इलाहिया इसी साजिश का हिस्सा है जिसके तहत गैर-वहाबी आस्थाओं को, चाहे वह इस्लाम के अंदर की आस्थाएं हों या गैर-इस्लामी, जड़ से उखाड़ फेंकने और उनकी जगह एक ऐसा निजाम खड़ा करने की योजना है जिसमें हिटलर जैसा वहाबी परचम लहराया जा सके। किससे छिपा है कि सऊदी अरब का हर कदम अमेरिका की जानकारी में उठता है। क्या अमेरिका को इसका इल्म नहीं कि सऊदी अरब अपने देश से लेकर पाकिस्तान और बांग्लादेश तक इन संगठनों की तमाम तरह से मदद कर रहा है और इसकी छाया हिंदुस्तान पर भी मंडरा रही है।

आज की वहाबी आस्था के पास केवल तलवार और राइफलें नहीं हैं बल्कि इनके हाथों बेहद खतरनाक आधुनिकतम हथियार लग चुके हैं। इनकी नजरें पाकिस्तान में मौजूद परमाणु हथियारों पर भी हैं। आस्था जब पागलपन बन जाए तो वह तमाम हदें पार कर सकती है। जो लोग ईद के दिन मस्जिदों में घुसकर लाशों के अंबार लगा सकते हैं वे मौका मिलने पर क्या कुछ नहीं कर गुजर सकते। वहाबियत का खतरा इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इस खतरे की चपेट में हर वह शख्स है जो इस दरिंदगी के खिलाफ खड़ा है।

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