Readings - Hindi

साँची कहौ तौ मारन धावै

यह क्रूरता कहां से आती है

खुर्शीद अनवर


धार्मिक कट्टरता जब तमाम सीमाएं तोड़ने लगती है तो सबसे पहले महिलाओं को निशाने पर लेती है। कभी उनका पूरा दमन करके कभी उनको इस्तेमाल करके। जो बातें वेदों में, ‘मानस’ में कहीं नजर न आएं उनको मनगढ़ंत स्मृतियों में और रोज पैदा होने वाले उपदेशों में देख लें। ताज्जुब है कि इनमें समानता भी बहुत होती है। मसलन, हिंदू मान्यता में धर्मजनित अंधविश्वास कि मासिक धर्म के दौरान महिलाओं के लिए क्या-क्या वर्जित है, इस्लाम में भी देखा जा सकता है। मगर इसे ज्यादा तूल देने के बजाय देखना यह है कि किस तरह धार्मिक कट्टरता पागलपन का रूप लेती है। वहाबियत ने ठीक वही काम किया। हमारे देश में जो हो रहा है उसकी झलक खुद-ब-खुद मिल जाएगी।

आठ अप्रैल 1994 को संयुक्त राष्ट्र ने मानवाधिकारों से संबंधित रिपोर्ट पेश की, जिसमें अफगान तालिबान ने महिलाओं पर जो बंदिशें लगार्इं उनकी एक लंबी सूची है। यहां उनमें से कुछ बिंदु पेश किए जा रहे हैं। पुरुष डॉक्टर के पास जाने पर पूरी पाबंदी। सिर से पैर तक बुर्के में ढंके रहना। घर से बाहर काम करने पर पूरी पाबंदी। पुरुष दुकानदारों से सामान न खरीदना। अगर टखने खुले दिख जाएं तो कोड़ों से उनकी पिटाई। उन्हें कोड़े मारना अगर वे तालिबान द्वारा निर्धारित लिबास न पहनें, सार्वजनिक रूप से उनकी पिटाई और गालियां। पति के अलावा किसी अन्य पुरुष से संबंध पर संगसारी करके मार देना। जोर से हंसने पर पाबंदी। रेडियो, टेलीविजन या किसी सार्वजनिक स्थल पर महिलाओं की मौजूदगी पर पाबंदी। साइकिल, मोटर साइकिल और कार चलाने पर पाबंदी। ईद या अन्य त्योहारों पर या मनोरंजन के लिए महिलाओं के इकट्ठा होने पर पाबंदी। तमाम शीशों की खिड़कियों पर पेंट करवाया जाना, जिससे औरतें बाहर न देख सकें। यहां सारे बिंदु देना संभव नहीं, क्योंकि सूची बहुत लंबी है। यानी महिलाओं को सिर्फ और सिर्फ चलती-फिरती लाश में तब्दील कर देना।

यहां दो तथ्यों का उल्लेख आवश्यक है। पहला यह कि इनमें से अधिकतर शरिया कानून महिला उत्थान की अलंबरदार मानी जाने वाली रब्बानी-मसूद सरकार के जमाने में अफगानिस्तान में नाफिज किए गए, जिनके कुछ उदाहरण यहां पेश किए जाएंगे। दूसरी अहम बात यह है कि महिलाओं के लिए बने इन तालिबानी कानूनों का आधार सऊदी अरब के वहाबी आस्था के कानून और स्कूलों के पाठ्यक्रम हैं।

रब्बानी-मसूद सरकार के दौरान महिलाओं पर वहाबी-तालिबानी क्रूरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1978 से मसूद ने सोवियत संघ के खिलाफ जंग छेड़ी और सोवियत संघ के विघटन के बाद गुलबुद्दीन हिकमतयार से जंग के दौरान सऊदी अरब ने सय्याफ और इत्तेहाद-ए-इस्लामी को जब वहाबी विचारधारा को फैलाने के लिए समर्थन दिया तो मसूद ने उसका स्वागत किया और फिर सिलसिला चला वहाबियत की स्त्री विरोधी विचारधारा के अफगानिस्तान में प्रसार का, और संयुक्त राष्ट्र में पेश किए गए दस्तावेज में मसूद की भागीदारी की सनद। आठ अप्रैल 1994 को प्रस्तुत इस रिपोर्ट में मसूद सरकार की बड़ी भूमिका थी। औरतों पर जुल्म जो सामने न आया। 1979 से लेकर अगले पांच वर्ष तक उच्च स्तर तक महिला शिक्षा नब्बे फीसद हो चुकी थी। बंदिशों के आने के बाद 1992-93 तक महिला शिक्षा घट कर तीस फीसद हो गई, जबकि इसमें भी वे महिलाएं शामिल हैं जिन्हें शिक्षा 1979 के बाद के पांच वर्षों में मिली थी।

पतियों के जुल्म से केवल हेरात में इस दौरान नब्बे महिलाओं ने आत्महत्या की। (संयुक्त राष्ट्र दस्तावेज ) ऊपर से क्रूर मजाक। सीआइए ने मसूद की चे-गेवारा से तुलना की। लेकिन देखिए यही जिहादी तालिबान इन्हीं महिलाओं का इस्तेमाल अपने मकसद के लिए कैसे करते हैं! तालिबानी कारी जिया रहमान ने, जो कुनार और नूरिस्तान (अफगानिस्तान) और बाजौर और मोहम्मद (पाकिस्तान) में महिला आत्मघाती दस्ते का प्रशिक्षण शिविर चलाता है, अब तक कई महिलाओं को आत्मघाती हमले में इस्तेमाल किया है। यहां से फरार दो लड़कियों ने इसकी सूचना पाकिस्तान सरकार को दी, लेकिन हमेशा की तरह पाकिस्तान ने कोई कार्रवाई नहीं की। इसके फौरन बाद 21 जून 2010 को कुनार में महिला आत्मघाती हमला हुआ। कारी जिया रहमान ने खुशी का इजहार करते हुए हमले की तस्दीक की। इसके बाद 24 जून 2010 को बाजौर में अगला महिला आत्मघाती हमला हुआ जिसमें चालीस नागरिकों की जान गई। सिर्फ 2010 में पख्तूनख्वा के खैबर सूबे में बमबारी की उनचास घटनाएं हुर्इं, जिनमें बाजौर (पाकिस्तान) में विश्व खाद्य कार्यक्रम पर हुआ एक महिला आत्मघाती हमला शामिल नहीं है।

वर्ष 2011 से ‘बुर्का बमबारी’ का दौर शुरू हुआ। इसे तालिबान ने ‘मुजाहिदा सिस्टर्स’ का नाम दिया। इस नई तर्ज के हमले में बुर्के में अक्सर मर्द भी आकर बमबारी करते रहे लेकिन मुख्यत: आत्मघाती हमलों की जिम्मेदारी औरतों की ही रही। चार जून 2011 को कुनार (अफगानिस्तान) में फिर महिला आत्मघाती हमला हुआ, जिसकी जिम्मेदारी लेते हुए तालिबान ने कहा कि ‘मुजाहिदा सिस्टर्स’ ने यह काम अंजाम दिया। इसी साल अगला हमला डेरा इस्माइल खां में हुआ। महिला आत्मघाती हमलों का नातमाम सिलसिला रुका नहीं। ये वही इस्लाम के ठेकेदार हैं जिनके अनुसार महिलाओं के जोर से हंसने पर पाबंदी होनी चाहिए। रेडियो, टेलीविजन या किसी सार्वजनिक स्थल पर महिलाओं की मौजूदगी पर पाबंदी होनी चाहिए। साइकिल, मोटर साइकिल और कार के चलाने पर पाबंदी होनी चाहिए। तमाम शीशों की खिड़कियों पर पेंट करवाया जाना चाहिए जिससे औरतें बाहर न देख सकें।

आत्मघाती हमलों के समय ये नियम कहां चले जाते हैं? औरतों के प्रति इस दोहरे रवैए को तालिबान की मक्कारी और इनके सरपरस्त वहाबी पैरोकारों के दोमुंहेपन के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। एक तरफ सऊदी अरब की वहाबी सरकार और इनके आतंकी संगठन महिलाओं को गुलाम से बदतर जिंदगी देने वाले नियम बनाते हैं, दूसरी तरफ यही औरतें ‘मुजाहिदा’ कहलाने लगती हैं। महज इस्तेमाल की शय हैं इनकी नजर में औरतें और ये वहाबी और आतंकी खुद को इस्लाम का सही पैरोकार बताते हैं। क्या इनका कुरान अल-वहाब के आने के बाद अठारहवीं सदी में नाजिल हुआ? जो कुरान मोहम्मद साहब के वक्त नाजिल माना जाता है उसमें तो ऐसा कुछ नजर नहीं आता। यह है राजनीतिक इस्लाम, जिसका मजहब और कुरान-हदीस से कोई लेना-देना नहीं।

इनकी हैवानियत का दूसरा रुख देखिए। जरा कोई आलिम बताए कि कुरान या किस हदीस में लिखा है कि मासूम बच्चों के गले में बम लगा कर उसे इंसानी और खुद का कत्ल करने को तैयार करो? लेकिन इनका इस्लाम यही करता है। मासूम गरीब बच्चों को और उनके घरवालों को जन्नत के ख्वाब दिखा कर और कुछ पैसे देकर आत्मघाती हमले के लिए तैयार करना अल-कायदा और तालिबान का ऐसा घिनौना काम है जिससे सारी मानवता का सिर शर्म से झुक जाना चाहिए। 4 नवंबर 2008 को संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रिपोर्ट में न केवल इस बात की तस्दीक की बल्कि इसकी भर्त्सना भी की कि तालिबान और अल कायदा दस से तेरह साल के बच्चों को आत्मघाती दस्ते में शामिल करके उन्हें प्रशिक्षण दे रहे हैं।

ग्वांतानामो की संयुक्त खुफिया एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार तालिबान का मानना है कि ये बच्चे चूंकि तर्क के आधार पर सोच नहीं सकते इसलिए शहीद बनने के लिए आसानी से तैयार हो सकते हैं। इसके लिए इनके दिमाग में जहर भरा जाता है और इन्हें पूरी तरह से असंवेदनशील बना दिया जाता है। खुद अफगानिस्तान की सरकार ने यह माना कि इन बच्चों को मुसलमानों, मुसलिम औरतों और बच्चों को यातना देने के वीडियो दिखाए जाते हैं जिससे कि इनका खून खौले और ये बदला लेने के लिए आतुर हों।

अफगानिस्तान की सरकार ने भी सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार किया कि ये बच्चे सात हजार डॉलर से चौदह हजार डॉलर की कीमत पर खरीदे जाते हैं और मां-बाप को कहा जाता है कि सिर्फ पैसा नहीं मिलेगा, आपका बेटा इस्लाम के नाम पर शहीद होकर सीधे जन्नत पहुंचेगा।

अल कायदा और तालिबान के लोग बेशर्मी की किस हद तक जा रहे हैं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कुनार और नूरिस्तान इलाके में जब बच्चा पूरी तरह से आत्मघाती कार्रवाई के लिए तैयार हो जाता है तो उसे दूल्हे की तरह सजा कर घोड़े पर बैठा कर पूरे गांव में घुमाया जाता है और गांव के लोग, जिनमें कुछ तालिबान के डर की वजह से या फिर उनके समर्थक होने के कारण, बच्चे के मां-बाप को मुबारकबाद देने आते हैं। इन कम-उम्र बच्चों की संख्या पांच हजार से सात हजार के बीच खुद पाकिस्तान सरकार ने स्वीकार की है।

पाकिस्तान के गृह मंत्रालय (इंटीरियर मिनिस्ट्री) के अनुसार पिछले दो साल में 2488 आतंकवादी घटनाएं घटी हैं जिनमें लगभग चार हजार लोग मारे गए हैं। इनमें से अधिकतर आत्मघाती हमले कमसिन बच्चों द्वारा किए गए हैं। तालिबान ने फिदायीन-ए-इस्लाम नाम से पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सीमा पर वजीरिस्तान में ऐसे तीन प्रशिक्षण शिविर तैयार किए हुए हैं जिनमें हजारों की तादाद में कम-उम्र बच्चे प्रशिक्षण पा रहे हैं। आतंकवाद के आज तक के इतिहास में इतने बर्बरता भरे सोच की मिसाल मिलना नामुमकिन है। इस पूरे इलाके में फैली अशिक्षा और अकल्पनीय गरीबी का फायदा उठा कर ये सारे काम अंजाम दिए जाते हैं।

वहाबियत का यह चेहरा किस कोण से इस्लामी चेहरा हो सकता है? गरीब का पेट भरना, गरीबी दूर करना, अशिक्षा दूर करना इन्हें इनका इस्लाम नहीं सिखाता। इनका इस्लाम सिखाता है ऐसी स्थिति का फायदा उठा कर मासूम इंसानों का खून बहाना। यह नया इस्लाम है। वहाबी इस्लाम। इसकी जड़ में मजहब नहीं राजनीति है। और जब मजहब और राजनीति का मेल होता है तो इंसानियत मौत के दरवाजे पर नजर आती है। वहाबियत और इनके आतंकी संगठन मजहब के नाम पर राजनीतिक इस्लाम स्थापित कर रहे हैं जिस पर लगाम नहीं लगी तो एक नए फासीवाद का जन्म निश्चित है।

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