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सांप्रदायिकता

सांप्रदायिक हिंसा का जवाब

सिद्धार्थ नारायण

मनमोहन सिंह सरकार ने हाल ही में सांप्रदायिक हिंसा (निरोध, नियंत्रण एवं पुनर्वास) विधेयक संसद के सामने पेश किया है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार ने अपने साझा न्यूनतम कार्यक्रम में आश्वासन दिया था कि वह ”सांप्रदायिक हिंसा से निपटने के लिए एक आदर्श समग्र कानून पारित“ करेंगे। क्या यह आश्वासन इस विधेयक से पूरा होता दिखाई दे रहा है?

इस तरह के कानून की मांग सांप्रदायिक हिंसा के दौरान कई राज्य सरकारों की भूमिका और तौर-तरीकों की वजह से पैदा हुई थी। दिल्ली में 1984 में सिखों के खिलाफ हुई संगठित हिंसा की जांच के लिए बनाए गए न्यायमूर्ति नानावती जांच आयोग ने पाया कि ये हमले ”बहुत सुनियोजित ढंग से हुए थे और हमलावरों को पुलिस का भय नहीं था“। दंगों में सरकार को कटघरे में खड़ा करते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि जो सिलसिला शुरुआत में छुटपुट आवेशपूर्ण कार्रवाइयों से शुरू हुआ था वह जल्दी ही ”सुनियोजित जनसंहार“ में तब्दील हो गया।

सांप्रदायिक हिंसा में सरकार की मिलीभगत के बारे में नानावती आयोग की यह टिप्पणी 1993 के मुंबई दंगों और 2002 के ‘गुजरात में जाति सफाए’ पर केंद्रित असंख्य जांच रिपोर्टों में व्यक्त किए गए निष्कर्षों से मिलती-जुलती दिखाई देती है।

सांप्रदायिक हिंसा विधेयक इन चिंताओं को संबोधित करता दिखाई नहीं देता। इस विधेयक में कहा गया है कि अगर किसी इलाके में हिंसा का ढर्रा और स्तर इस तरह का है कि उसमें किसी समूह, जाति या समुदाय के खिलाफ आपराधिक बल प्रयोग किया जा रहा है और उसकी वजह से जान या माल की हानि होती है तो राज्य सरकार उस इलाके को ”सांप्रदायिक रूप से अशांत“ घोषित कर सकती है। किसी इलाके को ”सांप्रदायिक रूप से अशांत“ घोषित करने के लिए जरूरी है कि वहां हो रही हिंसा विभिन्न समूहों, जातियों या समुदायों के बीच ”शत्रुता की भावना, घृणा या दुर्भावना“ पैदा करने के लिए की जा रही हो। विधेयक में यह भी प्रावधान किया गया है कि किसी इलाके को ”सांप्रदायिक रूप से अशांत“ घोषित करने के लिए इस निष्कर्ष पर पहुंचना जरूरी है कि ”अगर फौरन कदम नहीं उठाए गए“ तो देश के ”धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने, एकता, अखंडता, या आंतरिक सुरक्षा“ को खतरा पैदा हो सकता है।

विधेयक में कहा गया है कि यदि किसी परिस्थिति में केंद्र सरकार राज्य सरकार की कार्रवाई से संतुष्ट नहीं है तो वह हिंसा को कुचलने के लिए इस ओर राज्य सरकार का ”ध्यान आकर्षित“ करा सकती है और उसे आवश्यक निर्देश दे सकती है। अगर राज्य सरकार उसके निर्देशों का पालन न करे तो केंद्र सरकार उस इलाके को ”सांप्रदायिक रूप से अशांत“ घोषित कर सकती है। लेकिन ‘गुजरात में जाति सफाए’ के दौरान यही समस्या तो पैदा हुई थी। उस वक्त वाजपेयी सरकार ने संविधान के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करने से इनकार कर दिया था। संविधान की धारा 355 के अनुसार, यह सुनिश्चित करना केंद्र सरकार का दायित्व है कि ”प्रत्येक राज्य का शासन संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप संचालित किया जाए।“

इस प्रावधान को संविधान की सांतवीं अनुसूची में दी गई केंद्रीय सूची की प्रविष्टि 2ए के साथ पढ़ा जाना चाहिए। प्रविष्टि 2ए में केंद्र सरकार को अधिकार दिया गया है कि वह कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए राज्य सरकार की सहायता हेतु सशस्त्र बलों को वहां तैनात कर सकती है। हालांकि इस प्रावधान की व्याख्या पर विवाद रहे हैं लेकिन जानकारों का मानना है कि गुजरात जैसे हालात में उसका इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

विधेयक में यह प्रावधान भी नहीं किया गया है कि सरकारी अधिकारियों को भी सांप्रदायिक हिंसा के दौरान उनकी कार्रवाइयों के लिए उत्तरदायी ठहराया जाए। हालांकि विधेयक में सरकारी कर्मचारियों के दायित्वों और उनके त्रुटियों को तो परिभाषित किया गया है लेकिन इसके बावजूद यह विधेयक भी उन्हें दंडित करने के लिए राज्य सरकार की अनुमति के दायरे से बाहर नहीं निकालता। अगर किसी सरकारी कर्मचारी को इस बात का दोषी पाया जाता है कि उसने ”अपने विधिसम्मत अधिकारों का दुर्भावनापूर्वक इस तरह प्रयोग किया है जिससे किसी व्यक्ति या संपत्ति को हानि पहुंची है या पहुंच सकती है“ तो उसे साल भर तक की सजा दी जा सकती है। विधेयक के तहत अगर कोई सरकारी कर्मचारी ”अपने विधिसम्मत अधिकारों व शक्तियों का जान-बूझकर प्रयोग नहीं करता है“ और इस प्रकार ”समुदाय के लिए अनिवार्य सेवाओं एवं आपूर्तियों की निरंतरता में रुकावट या सार्वजनिक व्यवस्था को भंग या सांप्रदायिक हिंसा को रोक पाने में विफल हो जाता है“ तो उसे दंडित किया जा सकता है।

विधेयक में प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज करने से इनकार करना, अपराधों की जांच और दोषियों के खिलाफ मुकदमा दायर करने और पीड़ितों को सुरक्षा प्रदान कर पाने में विफलता को पुलिस अधिकारियों की अयोग्यता के रूप में परिभाषित किया गया है। विधेयक में कहा गया है कि इस अनुच्छेद के अंतर्गत अनुमति के लिए दिए गए आवेदन पर राज्य सरकार को 30 दिन के भीतर फैसला ले लेना चाहिए। लेकिन अगर राज्य सरकार किसी अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई करने से संबंधित आवेदन को खारिज कर देती है तो इस प्रावधान का कोई मतलब नहीं रह जाएगा।

अंतर्राष्ट्रीय उत्तरदायित्व
प्रस्तावित विधेयक अंतर्राष्ट्रीय संधियों के प्रति भारत सरकार की प्रतिबद्धता के अनुरूप दिखाई नहीं देता। भारत सरकार जनसंहारक अपराध निरोध एवं दंड कनवेंशन पर हस्ताक्षर कर चुकी है। इस संधि पर हस्ताक्षर करने वाले देशों की ज़िम्मेदारी है कि वह जनसंहार के दोषी व्यक्तियों को दंडित करें फिर भले ही वह ”संवैधानिक रूप से उत्तरदायी शासक“, सरकारी अधिकारी या कोई अन्य व्यक्ति ही क्यों न हों।

नागरिक समाज संगठनों की तरफ से इस आशय का एक महत्वपूर्ण सुझाव दिया गया है कि ‘जनसंहार’ के अपराध को परिभाषित किया जाए और निरपवाद रूप से सभी व्यक्तियों को उसके दायरे में लाया जाए। इसका मतलब यह होगा कि राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत बहुत सारे अधिकारियों को जो सुरक्षा मिली हुई है वह अप्रासंगिक हो जाएगी और न्याय प्रक्रिया में संप्रभु दंडमुक्ति और विशेषाधिकार का अधिकार निरस्त हो जाएगा। इस परिभाषा के तहत उन अधिकारियों को भी दोषी ठहराया जा सकेगा जिनके तहत काम करने वाले अधिकारियों या व्यक्तियों ने कोई अपराध किया है।

यह विधेयक देश की न्याय व्यवस्था से जुड़े व्यापक मुद्दों को संबोधित करता दिखाई नहीं देता। सरकारी पक्ष के पक्षपातपूर्ण रवैये, जांच प्रक्रिया में मौजूद खामियों और पारदर्शी मुकदमे के अभाव जैसी समस्याओं को इसमें संबोधित नहीं किया गया है। 1977 में पुलिस व्यवस्था में सुधारों पर विचार करने के लिए नियुक्त किए गए राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने 1978 से 1981 के बीच आठ रिपोर्टें तैयार की थीं।

इन रिपोर्टों में पुलिस के कामकाज में राजनीतिक दखलंदाजी पर अंकुश लगाने, पुलिस हिरासत में यंत्रणा की घटनाओं को कम करने और पुलिसकर्मियों को अपने कृत्यों के लिए उत्तरदायी ठहराने के बारे में कई सुझाव दिए गए थे। पुलिसकर्मियों को उत्तरदायी ठहराने के लिए सुझाव दिया गया था कि उनके खिलाफ मुकदमे चलाने की छूट दी जाए। गृह मंत्रालय ने इन सुझावों को लागू करने के बजाय एक और समीक्षा समिति का गठन करके इन रिपोर्टों को ठंडे बस्ते में डाल दिया।

विधि आयोग तथा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी आपराधिक न्याय व्यवस्था में सुधार के बारे में कई सुझाव दिए हैं जिन्हें अब तक लागू नहीं किया गया है। सांप्रदायिक हिंसा के हालात से निपटने के लिए पारित किए गए किसी कानून के साथ-साथ अगर पुलिस व्यवस्था और आपराधिक न्याय व्यवस्था में भी सुधार नहीं किए जाएंगे तो ऐसे कानून का अपने आप में कोई खास मतलब नहीं रह जाएगा।
द हिन्दूइंगलिश दैनिक से साभार  

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