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सांप्रदायिकता

सांप्रदायिकता : विरोध बनाम सेक्युलर आंदोलन

खुर्शीद अनवर

आमतौर पर सांप्रदायिकता शब्द सुनते साथ हमारे जे़हन में आग, खून और दंगों की तस्वीरें उभरती हैं। भारत के आम इंसानों के बीच सांप्रदायिकता की धारणा भी यही है। समाज का बुद्धिजीवी तबका अपने तौर पर सांप्रदायिकता को अलग-अलग रूपों में परिभाषित करता आया है, और कर रहा है। लेकिन यह समझ और धारणा सिर्फ किताबी बातें रहकर एक सीमित दायरे में चर्चा का विषय बनती हैं। आम हिंदुस्तानी के लिए और यहां तक कि जुझारू और ईमानदार सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए भी सांप्रदायिकता मोटे तौर पर दंगे-फसाद, लूट-पाट, आगज़नी, क़त्ल, बलात्कार आदि से ही संबंधित है। इसका एक अर्थ यह भी लगाया जा सकता है कि जब ऐसी स्थिति न हो तो समाज में सांप्रदायिकता नहीं है और यदि है भी तो सक्रिय नहीं है। हममें से बहुत सारे लोग इस बात को बचकाना या उटपटांग समझ भी कह सकते हैं क्योंकि हममें से अधिकतर लोग लिखने-पढ़ने का काम करते हैं और किसी न किसी रूप में स्वयं को बुद्धिजीवी भी मानते हैं। आइए इसे एक ताज़ा उदाहरण के आइने में देखने की कोशिश करें।

2002 में गुजरात में भयावह सांप्रदायिक हिंसा हुई। हिंसा की शुरुआत से लेकर लगभग एक साल तक पूरे देश में सांप्रदायिकता के मुद्दे से सरोकार रखने वाले हर तरह के लोग दिन-रात सांप्रदायिकता विरोधी गतिविधियों में ही लगे रहे। देशभर में अनेक मंच भी बने, उनमें से कुछ सांप्रदायिकता विरोधी होने के नाम पर और कुछ अमन और एकता के नाम पर। फिर धीरे-धीरे आग और ख़ून, हिंसा और बलात्कार की घटनाएं कम होती गईं और उसी रफ्तार से हम कार्यकर्ताओं का जोश भी ठंडा पड़ता गया। और फिर केन्द्र सरकार बदली। लोगों ने जश्न भी मनाए। इसलिए नहीं कि केन्द्र में यू.पी.ए. सरकार ने सत्ता संभाली। बल्कि इसलिए कि केन्द्र से एन.डी.ए. सरकार हटी। अचानक अधिकतर कार्यकर्ताओं के सरोकारों की सूची से संभवतः सांप्रदायिकता का बिंदु कट गया और यदि कटा नहीं तो इस सूची में वो शब्द सबसे नीची कतार में पहुंच गया। आजकल इस पर बहस भी कम ही सुनाई पड़ती है। शायद हम मान बैठे हैं कि यह शांति का समय है लेकिन क्या ऐसा नहीं हो सकता कि यह वैसा ही शांति का समय हो जैसा शांति का समय गुजरात की हिंसा के पूर्व था। 27 फरवरी 2002 के लगभग छः महीने पूर्व तक किसी को ऐसा आभास भी नहीं था कि गुजरात जैसी अभूतपूर्व घटना घट सकती है। लेकिन छः महीने बाद गुजरात में दंगा नहीं जनसंहार हुआ। हम कह सकते हैं कि गुजरात में दंगों का अपना इतिहास है। सूरत, अहमदाबाद और बड़ोदा जैसे शहरों में अकसर सांप्रदायिक हिंसा भड़कती रही है। लेकिन दंगों का इतिहास देश के अन्य कोनों में भी है। मुंबई हो या भागलपुर, भिवंडी हो या मुरादाबाद, कानपुर हो या मुज़फ्फरपुर, मेरठ शहर हो या मलियाना, अनगिनत दंगे इन शहरों के इतिहास में दर्ज हैं। समूचा उत्तर प्रदेश और बिहार हमेशा से ही दंगों की रणभूमि रहा है। कहीं ऐसा न हो कि इन इलाकों में जो शांति हमें दिख रही है वो उसी शांति से मिलती-जुलती हो, जो 2001 तक हमें गुजरात में देखने को मिल रही थी।

अमन के हम रखवाले
दरअसल हमारी मानसिकता सांप्रदायिकता विरोध की बन चुकी है। हम गाते जरूर हैं ”अमन के हम रखवाले सब एक हैं“ लेकिन शायद अमन की रखवाली के लिए हम निरंतर सक्रिय रहकर समय नहीं बर्बाद करना चाहते। इसलिए हर बार होने वाली सांप्रदायिक हिंसा के विरोध में काम करने के बाद खामोशी से अपने दूसरे कामों में लग जाते हैं और अचानक तब सक्रिय होते हैं जब एक और सांप्रदायिक हिंसा का दौर शुरू होता है।

हिंसा के बाद सौहार्द का संवाद
आम तौर पर हिंसा के बाद सांप्रदायिक सौहार्द कायम करने की जो प्रक्रिया चलती है उसकी कार्यनीति कुछ इस प्रकार होती है :

  • शांति जुलूस निकालना
  • हिंसा के विरुद्ध धरने आयोजित करना
  • टकराव में शामिल समुदायों के बीच सौहार्द का संवाद कायम करना।

इन तमाम तरीकों का अपना एक महत्व है लेकिन कभी-कभी यह तरीके नाकाफी भी साबित होते हैं। मान लीजिए कोई बड़ी सांप्रदायिक हिंसा की घटना घटी। टकराव में शामिल तमाम पक्षों की मनःस्थिति उस समय क्या होगी, इसका अंदाज़ा लगाना कोई मुश्किल काम नहीं। एक-दूसरे की मंशा पर शक और अविश्वास की भावना, गुस्सा, शिकायत, आक्रामकता..... क्या ऐसी मनःस्थिति में सौहार्द के लिए संवाद सही नतीजे दे सकेगा। संभव है स्थिति की नज़ाकत देखते हुए तमाम पक्ष हिंसा रोकने पर राज़ी हो जायें लेकिन क्या वे भावनाएं भी जाती रहेंगी जो उनके मन के अंदर घर कर चुकी हैं? दरअसल अनुभव बताते हैं कि ऐसे समय में एक-दूसरे की बात सुनने के लिए न कान खुले होते हैं और न दिमाग़ राज़ी होता है। कभी-कभी तो संवाद के दौरान भावनाएं और भी भड़क जाती हैं। और जिस समय एक-दूसरे की बात सुनने के लिए कान खुले होते हैं और दिमाग तैयार रहता है, उसे हम शांति का दौर मानकर कुछ करने का प्रयास ही नहीं करते।
आइए ज़रा एक नज़र पिछले एक साल में घटी सांप्रदायिक घटनाओं पर डालें। ध्यान रहे कि ये घटनाएं पिछले केवल एक वर्ष की हैं, जबकि यू.पी.ए. सरकार आते ही हमने जो शांति का समय घोषित किया उसे लगभग तीन वर्ष का समय बीत चुका है।

मऊ, उत्तर प्रदेश....................... जनवरी 2006
भोजशाला, मध्य प्रदेश................. जनवरी-फरवरी 2006
इंदौर, मध्य प्रदेश....................... जनवरी 2006
जयपुर, राजस्थान....................... जनवरी 2006
फैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश.................. जनवरी 206
मेरठ, उत्तर प्रदेश...................... फरवरी 2006
अलापुज़ा, केरल.......................... फरवरी 2006
लेह, जम्मू-कश्मीर...................... फरवरी 2006
गोवा, गोवा................................ मार्च 2006
लखनऊ, उत्तर प्रदेश.................. मार्च 2006
मुजफ्फरपुर, उत्तर प्रदेश.............. मार्च 2006
अलीगढ़, उत्तर प्रदेश.................. अप्रैल 2006
बैंगलोर, कर्नाटक......................... अप्रैल 2006
मराड, केरल............................... अप्रैल 2006
खंडवा, मध्य प्रदेश...................... अप्रैल 2006
पाली, राजस्थान.......................... अप्रैल 2006
अहमदपुर, मध्य प्रदेश................. मई 2006
बड़ौदा, गुजरात........................... मई 2006
प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश................. 7 जून 2006
बहरामपुर, उड़ीसा........................ जुलाई 2006
भिवंडी, महाराष्ट्र......................... जुलाई 2006
मंगलूर, कर्नाटक......................... अक्टूबर 2006
गोरखपुर-मऊ, उत्तर प्रदेश जनवरी-फरवरी 2007

अभी जबकि योगी आदित्यनाथ के इशारे पर समूचा पूर्वी उत्तर प्रदेश सांप्रदायिक टकराव के दौर से गुज़र रहा है फिर भी शांति कर्मियों में शांति ही छाई हुई है। क्या फिर किसी गुजरात का इंतज़ार है जिसके बाद ये खामोशी टूटेगी।

उनका एजेण्डा—हमारी प्रतिक्रिया
सांप्रदायिकता से लड़ने के लिए हमें अपने तरीकों में सोचे-समझे बदलाव लाने होंगे। हम सभी जानते हैं कि सांप्रदायिकता विरोध के बजाय हमें एक सेक्युलर आंदोलन की ज़रूरत है। यह कब तक चलता रह सकता है कि सांप्रदायिक शक्तियां अपना काम कर चुकने के बाद हमें अपने कर्तव्य निर्वाह पर मजबूर करें। अगर हम इन शक्तियों को कामयाब नहीं होने देना चाहते तो हमें उस समय का इस्तेमाल करना होगा जिसे हम शांति का समय समझ बैठते हैं। जिस तरह पिछले कुछ दशकों में नारीवादी आंदोलन और दलित आंदोलन ने अपने लिए स्वयं एजेंडा तैयार किया है उसी तरह हमें एक सेक्युलर आंदोलन खड़ा करना होगा और उसके लिए अपना एजेंडा खुद ही तैयार करना होगा। निश्चित रूप से नारीवादी आंदोलन और दलित आंदोलन ने पिछले कुछ दशकों में सफलता हासिल की है। और ये सफलता इसीलिए हासिल हो पायी है कि इन आंदोलनों ने महिला उत्पीड़न और जातिगत उत्पीड़न के विरोध में अपनी आवाज़ तो उठाई ही है, साथ ही सतत् रूप से और निरंतर यह आंदोलन अपना एजेंडा लेकर समाज के सामने पुरजोर आवाज़ें भी उठाते रहे हैं। अब ये आंदोलन महिला उत्पीड़न विरोधी आंदोलन अथवा जातिगत उत्पीड़न विरोधी आंदोलन न रह कर नारीवादी आंदोलन और दलित आंदोलन बन चुके हैं। इन आंदोलनों की आवाज़ों पर समाज का ध्यान आकर्षित होता है। सांप्रदायिकता के संदर्भ में भी आवश्यकता कुछ ऐसी ही है। नाम हम इसे कुछ भी दें लेकिन काम का एजेंडा और रास्ता चुनने में हमें अन्य आंदोलनों की राह ही चलना पड़ेगा।

हमारी भूमिका
सांप्रदायिकता की जड़ें मजबूत करने में सांप्रदायिक शक्तियां जिन हथियारों का इस्तेमाल करती हैं उन्हें मेरी एण्डरसन ने ‘आघात न पहुंचे’ नामक पुस्तक में अन्य टकरावों के संदर्भ में इस प्रकार श्रेणीबद्ध किया है :

  • व्यवस्थाएं एवं संस्थान
  • व्यवहार एवं रवैये
  • भिन्न मूल्य एवं हित
  • भिन्न अनुभव
  • प्रतीक एवं पर्व

उसी पुस्तक में उन्होंने यह भी माना है कि जिस समाज में लोगों में नफरत फैलाने में उपरोक्त पांच पक्ष काम करते हैं वहीं उसी समाज में अमन की स्थानीय क्षमताएं भी पहले से मौजूद होती हैं जो इस प्रकार हैं :

  • व्यवस्थाएं एवं संस्थान
  • व्यवहार एवं रवैये
  • साझे हित एवं मूल्य
  • साझे अनुभव
  • प्रतीक और पर्व

मेरी एण्डरसन के अनुसार तमाम टकरावों के संदर्भ में हमारी भूमिका बनती है उपरोक्त जोड़ने वाले तत्वों अथवा अमन की स्थानीय क्षमता को निरंतर मजबूत बनाते रहना और समाज में तनाव पैदा करने वाले तमाम पक्षों को उसी मजबूती बनाने के दौरान कमजोर करना। भारतीय समाज में भी ऐसी व्यवस्थाएं और संस्थान, व्यवहार और रवैये, साझे मूल्य एवं हित, साझे अनुभव और प्रतीक एवं पर्व हमेशा से मौजूद रहे हैं जो समाज को जोड़े रखने का काम करते रहे हैं। यही हमारी साझी विरासत भी हैं। हमारी भूमिका बनती है कि इस साझी विरासत को चिन्हित करें और इन्हें मजबूत बनाने का काम करें। यदि हम एक सशक्त सेक्युलर आंदोलन की नींव रखना चाहते हैं तो इससे पहले कि वे व्यवस्थाएं एवं संस्थान, व्यवहार एवं रवैये, भिन्न मूल्य और हित, भिन्न अनुभव और विभेद पहुंचाने वाले प्रतीक एवं पर्व का इस्तेमाल करते हुए सांप्रदायिक शक्तियां हमारे बीच का सारा साझापन समाप्त करते हुए हमारी साझी विरासत को भी समाप्त कर दें, हमें खुद पहल करनी होगी और अपनी साझी विरासत को अपने सेक्युलर आंदोलन का हथियार बनाकर नारीवादी और दलित आंदोलन की तरह ही शांति की स्थापना के लिए एक नये दौर में प्रवेश करना होगा।             

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