Readings - Hindi

सांप्रदायिकता

स्कृति और सांप्रदायिकता

हबीब तनवीर

दोस्तों ‘संस्कृति और सांप्रदायिकता’—इस टाइटल में मैं थोड़ा तरमीम कर दूं-संस्कृति और धर्म। इस तरह अगरचे सोचें, तो हमारे जितने भी धार्मिक संस्कार हैं वो हमारी संस्कृति भी हैं।

संस्कृति का धर्म से बहुत गहरा ताल्लुक है। और हमारा कोई संस्कार ऐसा नहीं है, कल्चर का कोई भी शोबा, जिसमें कहीं न कहीं धर्म का कोई ताल्लुक न हो। जितनी रवायतें हैं, जितनी हमारी परम्परा है, वो सब इससे जुड़ी हुई हैं। मुहर्रम, ईद, बक़राईद, शब्बेरात की पूरनपोली जो हिन्दुओं में बंटती और दीवाली की मिठाई जो हम तक आती रही है हमेशा, और अब भी आती है। हमारी परम्परा रामलीला की, जिसमें रामलीला के मुखौटे जो मुसलमान बनाते हैं, वही मुहर्रम के ताज़िये भी बनाते हैं—वो सब हमारे कल्चर से जुड़े हुए हैं। करबला का किस्सा अनीस और दबीर की ज़बान से आप सुनते और वो लोग जहां करबला का वाक़या हुआ था। हसन, हुसैन की मौत हुई थी। एक को ज़हर दिया गया था और दूसरे को प्यासा मार दिया गया था, सारे खानदान को खत्म कर दिया। तो वो एक रौंगटे खड़े कर देने वाले निज़ाम फ़ासियत से भरा हुआ, बेरहमी से भरा हुआ वो था। उसके मरसिए जब अनीस और दबीर और दूसरों ने लिखे तो एहतशाम हुसैन ने अपनी तैहक़ीक़ से उस पर तनक़ीद लिखी, उसकी आलोचना लिखी तो उन्होंने कहा कि जितने हिन्दू संस्कार हैं वो इसके अंदर आ गए हैं। फ़ातिमा का बैन करना अब्बास की मौत पे, या बच्चों, या ज़ैनब की मौत पे-उन सब के अन्दर वो तमाम तरीक़े बैन के मौजूद हैं, जिनका ताल्लुक हिन्दुस्तान की ज़मीन से हैं। वहां जहां पे कर्बला हुआ था वहां पैशन प्ले की शक्ल में मुहर्रम के ज़माने से एक बिल्कुल दूसरी किस्म की पद्धति चलती आई है। यहां जो मुहर्रम के शेर नाचते हैं, हमारे यहां रायपुर में, दक्कन में, बस्तर में, जगदलपुर में, चारों तरफ साउथ में, शेरे अली के नाम से उसके अंदर हिन्दू संस्कार बहुत से मिलते हैं। और मुहर्रम में जो बग़ैर बाजों के सोज़ पढ़ा जाता है, उसको ‘गाया जाता है’, नहीं कह सकते। कहना मायूब भी समझा जाता है। उसमें कोई साज़ नहीं होता मगर बड़ी खुली पाटदार आवाज़ में अच्छा सोज़ पढ़ने वाले, बड़े अच्छे सुर में टीप की आवाज़ में सुनाते हैं। उस में दख़ल नहीं है, मुसलमान कौन है और कौन हिन्दू है, सबकी आंखों में आंसू आ जाते हैं। यह सब हमारे संस्कार और घुले-मिले संस्कार जिनका बहुत गहरा ताल्लुक धर्म से, मज़हब से हैं। एक दूसरे पर जो असरअंदाज़ हुए हैं हमारे मज़ाहिब, उनसे भी इसका ताल्लुक रहा है। जब उर्दू शायरी में गालिब यह कहते हैं :
वफ़ादारी बशर्ते उस्तवारी अस्ले ईमां है।
मरे बुतख़ाने में तो काबे में गाढो बिरहमन को।।

हिन्दुस्तान का शायर ही इस तरह की बात कह सकता था। इस कल्चर से वो वाकिफ है। ब्राह्मण की वो तारीफ़ कर रहे हैं कि अगर उसमें वफ़ादारी, उस्तवारी है, कन्सिसटैंसी है दुर्योधन की तरह की—सुई के नोक के बराबर भी जमीन नहीं दूंगा—सौ भाई मरवा दिये, कटवा दिये, आखिर तक नहीं माना, नतीजतन हार गया। लेकिन जब पांडव सिधारे और वहां पहुंचे तो देखकर दंग थे कि दुर्योधन को स्वर्ग में जगह मिली है। पर जवाब मिला कि आदमी में वफादारी थी, इन्टिग्रिटी थी, कन्सिस्टैंसी थी, एक बात पर अड़ा रहा तो आखिर तक अड़ा रहा। तो ग़ालिब भी यही कह रहे हैं कि अग्रर ब्राह्मण पैदा हुआ है बुतखाने में, सनम की पूजा करते हुए, बुतपरस्ती करते हुए, काफ़िर है, कुफ्र पर आखिर तक, मरते दम तक कायम हैं। बीच में एक कड़ी गायब करके ग़ालिब ने कहा है :
वफादारी बशर्ते उस्तवारी अस्ले इमां है।
मरे बुतख़ाने में तो काबे में गाढ़ो बिरहमन को।

द क्विन्टेसेंस ऑफ़ फ़ेथ इज़ कन्डीशंड बाए कन्सिस्टैंसी, इफ़ दैट प्रीमाइस इज़ करैक्ट, दैन—मरे बुतख़ाने में तो काबे में गाढ़ो बिरहमन को। तो पैदा तो बुतख़ाने में हुआ, कुफ्ऱ की भूमिका में, उसकी फ़िज़ाओं में पैदा हुआ, पला, बीच में छोड़ा नहीं। उन्होंने सिर्फ़ मरने का ज़िक्र किया है। तो ईमान का तो पक्का था। इसलिए कि अगर ईमान का मूल रूप उसका सत्य है, उस्तवारी है, कन्सिसटैंसी है- उसको उन्होंने पहले डिफ़ाइन कर दिया है—वफ़ादारी-फ़ेथफुलनैस कन्डीशंड बाए कन्सिस्टैंसी इज़ द क्विन्टेसेंस ऑफ फ़ेथ। अगर ये सच है तो फिर उसको वहां ले जाओ और बड़े ताम-झाम से, एहतमाम से काबे में उसको गाढ़ो। तो खै़र काबे में तो कोई ब्राह्मण नहीं जायेगा गढ़ने के लिए। लेकिन कहने के लिए उन्होंने ये कहा कि वह क़ाबिल-ए-एहतराम है, उतना ही जितना कोई भी ईमानदार आदमी हो सकता है।

फिर सुब्बह और जुनार का हमारे यहां उर्दू शायरी में आप को बार-बार ज़िक्र मिलेगा। सुब्बह और जुनार का मतलब जनेऊ और जाप की माला। ये प्रतीक, सिंबल्स बन जाते हैं। तो संस्कृति कहां-कहां से फूट के निकली है, कैसे वो पनपी है और कहां तक पहुंची है। मोमिन जब कहते हैं :
उम्र सारी तो कटी इश्क़े बुतां में मोमिन।
आख़री वक्त में क्या ख़ाक मुसलमां होंगे।।

तो लफ्ज़े बुत से फ़ायदा उठा के, बुत यानी माशूक, अल्लाह के सिवा किसी और की परस्तिश इस्लाम में नाजायज़ है, वो वाहिद है, इनडिविज़बल है, एक है। ‘दुई’ को वो बरदाश्त नहीं करता है। उसके पास अल्लाह के अलावा कोई और नहीं है जिसकी परस्तिश की जाए। और मैं हसीनाओं की परस्तिश करता रहा हूं उतनी ही शायद ज़्यादा बनिस्बत अल्लाह के, तो मैं क़ाफ़िर हुआ। अब मैं आखि़री वक़्त में मुसलमान क्या खा़क होऊंगा। किस बैकग्राउन्ड से शेर कहा गया है, इस पर गौर करें। बुतपरस्ती, बुतशिकनी इनकी आपको हज़ार मिसालें मिलेंगी। मीर तक़ी मीर कहते हैं :
मीर के दीनो मज़हब को पूछते क्या हो के उन्ने तो।
कशक़ा खैंचा, दैर में बैठा, कब का तर्क इस्लाम किया।।

तो मीर साहब ने तो तिलक लगा ली थी, मंदिर में बैठ गए। इस्लाम तो इजाज़त नहीं देता इन चीज़ों की। मगर वो वहां बुतख़ाने में बैठा। उसका भी इशारा बुतों के इश्क़ से है, हसीनाओं की मुहब्बत से है। उस किस्म की वालिहाना मुहब्बत जो कि जायज़ है खुदा के लिए। पर अगर वो इन्सान के लिए बरती जा रही है तो वो काफिर है। तो ये किस मुल्क का शायर कह सकता है सिवाय हिन्दुस्तान के? हिन्दू मज़हब तो और कहीं नहीं है। फ़ारसी की जो ग़ज़लें हैं उसके अंदर ये मिसालें आपको नहीं मिल सकतीं, हालांकि उर्दू की गज़ल के ऊपर बड़ा गहरा असर फ़ारसी की रवायतों का है। लेकिन इसके बावजूद ये सिर्फ हिन्दुस्तान का शायर कह सकता था। जिसकी मैंने आप को मिसालें दीं।

यास यगाना चंगेज़ी लखनवी बड़े अच्छे शायर थे, अभी हाल ही में उनका इन्तक़ाल हुआ। उनकी सोहबत से हमें भी बड़ा फ़ायदा हुआ। उनकी बातें भी बहुत पुरलुत्फ़ थीं और शेर बहुत अच्छे। बहुत ख़राब शेर भी कहते थे। ग़ालिब दुश्मनी में उन्होंने बहुत से उल्टे-सीधे शेर भी कहे हैं। लेकिन जो सरदार जाफ़री ने उनको छांट के, बुखारी के हुक्म पे छोटा सा इन्तखा़ब निकाला है, उसमें से आप एक मिसरा भी नहीं हटा सकते, सब का सब पूरा शाहकार है, मास्टरपीस। मुरसां ग़ज़लें हैं, मतले से लेकर मक़्ते तक। लखनऊ के बारे में उन्होंने कहा है-उसमें एक शेर है :
सब तेरे सिवा काफ़िर आखिर इसका मतलब क्या।
सर फिरा दे इन्सां का, ऐसा  ख़ब्ते मज़हब क्या।।

बहुत पुरलुत्फ़ शायर थे।
मूज़ीयों के मूज़ी को पड़ चुके बहुत पाले
डस चुके बहुत काले
मूज़ीयों के मूज़ी का फ़िक्रे नेशे अक़रब क्या।
सर फिरा दे इंसां का ऐसा ख़ब्ते मज़हब क्या
सब तेरे सिवा काफ़िर आखि़र इसका मतलब क्या।

शेख़ जी के मुखा़तिब है, ज़ाहिर है मुल्ला से कट्टरपन के खिलाफ़। मुल्लापन के खि़लाफ़ उर्दू शोअरा की पूरी सफ़ खड़ी है।
ऐ मोहतसिब न फ़ेंक, अरे मोहतसिब न फ़ेंक
ज़ालिम शराब है, अरे ज़ालिम शराब है।

जिगर मुरादाबादी का शेर है। मोहतसिब यानी सैंसर करने वाला कौन हो सकता है सिवाय शासन के और मुल्ला के। और ‘‘मस्जिद के ज़ेरे साया ख़राबात चाहिए’’
टोटली अण्डरमाइनिंग ऑल फ़ंडामैंटलिज़्म, के मस्जिद के पास ही अगर शराबख़ाना भी हो तो दोनों चीज़ें कर लेंगे। शराब भी पी लेंगे और नमाज़ भी पढ़ आयेंगे। दोनों चीज़ों से बेफ़िक्री। मैं उर्दू शायरी की रवायतों से निकला हूं तो चुनांचे ये मिसालें ज़्यादा दे रहा हूं। हज़ारों चीज़ें आपको दूसरी जगहों से मिल जायेंगी। चाहे वो महादेवी वर्मा हों, मुक्तिबोध हों, निराला हों, और शुअरा हों, रघुपति सहाय फ़िराक हों, पंडित दयाशंकर नसीम हों, पुराने लोगों में अकबर इलाहाबादी हों। इन तमाम के अन्दर ये हमारी विरासत, ये हमारा विरसा, हैरिटेज रहा है। चुनांचे धर्म का बड़ा ज़बरदस्त कंट्रीब्यूशन कल्चर की तरफ रहा है। नज़ीर अकबराबादी का नाम मैं भूल गया :
ज़ोर बलदेव जी का मेला है
ज़र अशर्फ़ी है, पैसा धेला है
वाह क्या-क्या वो खेल खेला है
भीड़ है, ख़ल्क़तों का मेला है
मोतिया है, चमेली, बेला है
ज़ोर बलदेव जी का मेला है

महादेव का ब्याह, या सब मिलकर अरदास करो और सब जन बोलो वाहे गुरु। तो धर्म से ताने-बाने हमारे कल्चर के इतनी गहराई से मिले हुए हैं कि उनको अलग नहीं किया जा सकता।

साम्प्रदायिकता को क्या धर्म का लाज़मी अंश माना जा सकता है? क्या हम अगर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं और कल्चर उसका इतना फ़ायदा उठाता है, तो क्या हम ये कहेंगे कि दुनिया के सभी मज़हबों में सबसे अच्छा इस्लाम है या हिन्दू मज़हब है और जो ब़ाकी लोग हैं वो निकम्मे हैं, घटिया, कमतर हैं। वो ब्लू आईड आर्यन्स, जिनको हिटलर ने कहा था, वो नहीं हैं। ये काले बाल, काली आंखों वाले यहूदी हैं, जिनको खत्म कर देना ऐन सबाब का काम है; ये तो किसी मज़हब में आपको नहीं मिलेगा। तो साम्प्रदायिकता का कोई ताल्लुक कल्चर से नहीं है। धर्म का मगर है। साम्प्रदायिकता का संबंध क्या धर्म से है? नहीं है। संस्कृति का धर्म, मज़हब से बहुत गहरा ताल्लुक है। लेकिन साम्प्रदायिकता का न कल्चर से ताल्लुक है न धर्म से। ये बात आप और हम सब अच्छी तरह से जानते हैं कि ये कोई और चीज़ है, इस चिड़िया का कुछ और ही नाम है। इसके पॉलिटिकल कॉम्पलीकेशन हैं, ये पैदा की गई हैं, पहले नहीं थी। अंग्रेजों ने इसे पाला-पोसा, बढ़ाया, पनपाया। जनम का निहायत उम्दा नाटक, चटगाँव पर मैंने कल देखा। उसमें बहुत भड़काने की कोशिश की गई कि मुसलमानों को मार रहे हैं हिन्दू- निकलो बाहर ताकि उनको मारा जाए और फ़साद शुरू किया जाए- लेकिन वो नहीं निकले। हैदर अली और टीपू सुल्तान जो मैसूर में थे और आसिफ़दौला और निज़ाम-उल-मुल्क हैदराबाद में थे। मराठों के साथ अंग्रेजों की साज़-बाज़ थी कि कुछ कांट-छांट करें। सारी हिस्ट्री इस से भरी हुई है।

बहुत दूर अगर न जायें तो साम्प्रदायिकता की इमीडियेट इब्तिदा, कि कहां से शुरू हुई तो हमको 200 साल के अन्दर की ये हिस्ट्री मिलती है; गद्दारों की हिस्ट्री। इक़बाल कहते हैं :
‘‘जाफ़र अज़ बंगाला सादिक़ अज़ दकन
नंगे मिल्लत, नंगे दीन, नंगे वतन’’

बंगाल से उठे जाफ़र और मैसूर (दकन) से उठे सादिक और ये मिल्लत, यानी कम्युनिटी के नाम पर लानत थे, मज़हब के नाम पर लानत थे, और वतन के नाम पर लानत थे। तो उसमें नंगे मिल्लत, नंगे दीन, दीन का मतलब मज़हब़, नंगे वतन। इस पर एक जाफ़री ने जो लाहौर के हुआ करते थे और मज़ाहिया और तनज़िया शायरी बड़ी अच्छी करते थे, जैसे उन्होंने आज़ाद नज़्म का व्यंग्य लिखा था :
एक मिसरा फीले ब़े ज़ंजीर का मानिंद

लम्बा चौड़ा वो मिसरा था। हाथी के पांव की लम्बी सी ज़ंजीर की तरह का मिसरा। दूसरा उशतुर की दुम, ऊंट की दुम। इस तरह की शायरी करते थे। इक़बाल के शेर पे मज़ाक उड़ाते हैं :
गांधी अज़ गुजरातो
भावे अज़ दक्कन
नंगे पांव, नंगे सर, नंगे बदन।

नंगे का मतलब ही बदल दिया उन्होंने। नंग का मतलब लानत है। तो यह हमारी कल्चरल हैरीटेज है। साम्प्रदायिकता का कोई ताल्लुक हमारी विरासत से नहीं है। ये कुछ अंग्रेजों की देन है, कुछ हिटलर महोदय की देन है। साम्प्रदायिकता और फ़ासिज़्म में बहुत कम फ़र्क़ बाक़ी रह गया है।

हर मज़हब या उसके बारे में कोई चिंतन, फ़िक्र जब हुई है तो एक तरक़्कीपसंद तहरीक की तरह आया है। दुनिया का हर मज़हब उसमें हिन्दू मज़हब शायद इसलिए शामिल नहीं है क्योंकि उसको मज़हब मानना ज़रा सा ग़ौरतलब है। वे ऑफ थिंकिंग, वे ऑफ़ लिविंग, एक तरीक़ा ए हयात। तरीक़ा उसका खुला-डुला, निहायत अच्छा, जिसमें न पण्डित को ताल्लुक है, और न मंदिर को। ये सब तमाम चीज़ें हिन्दू मज़हब में नज़र नहीं आतीं, ये सब बाद की चीज़ें हैं, अपना-अपना जमाया-कमाने धमाने का धंधा- कि मेरे बगै़र शादी नहीं हो सकती, मेरे बग़ैर मौत नहीं हो सकती, मेरे बग़ैर बच्चा जन्म नहीं ले सकता, सारे संस्कार मेरे माध्यम से होंगे। मैं भगवान और आपके बीच में बाध्यम हूं, पुल हूं। पंडित का रोल बाद में आया, मंदिर था नहीं। घर में बैठकर पूजा कर लो। पेड़ को मान लो, नाग-सांप को मान लो, किसी भी देवी-देवता को मान लो, सब बराबर है। ये इतना खुला-डुला मज़हब है, इसमें इतनी आटोनॉमी है। इसके अंदर से इतना कट्टरपन कैसे पैदा हुआ। पण्डित भी इतने कट्टर नहीं थे। ये तो राजनैतिक लोग हैं जिन्होंने नए किस्म की पंडित कौम बनाई है। आर्य समाज भी लिबरल, उसकी थिंकिंग भी। अकबर का दीन-ए-इलाही या बहाई मूवमैंट, ये सब लोग मुफ़क्किर हैं, चिन्तक हैं, जो सोचते हैं कि यह फ़र्क मिटाया जाना चाहिए। यह सब चीज़ें बाद की हैं। इंटरकम्युनल शादी नहीं हो सकती तो आर्य समाज में आ जाओ, हो जायेगी। चुनांचे क्या अच्छा नावेल लिखा है रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘गोरा’ सारा आर्य समाज के ऊपर है। तो फिर अपने श्यामा प्रसाद मुखर्जी- जैसे डेढ़ ईंट की मस्जिद मुल्ला ने बनाई, वैसे ही उन्होंने भी एक मंदिर स्थापित किया जनसंघ नाम का। जिससे बाद में विश्व हिन्दू परिषद् निकली, बी.जे.पी. निकली, शिव सेना भी आई। अब जनसंघ की बहुत औलादें हैं, वो इतनी पनपी हैं, इतनी बढ़ी हैं कि हैरत होती है। आपस में ढकोसले और फ़र्क रखना, अपनी-अपनी शिनाख़्त अलग बनाए रखना, अंदर ही अंदर सबकी मिली भगत होना और सबका एक प्रोग्राम होना। चाहे वो ए.बी.वाजपेयी हों या एल.के.आडवाणी हों, बुनियादी तौर से एक ही हैं। अमरीका जाकर ए.बी.वाजपेयी कहते हैं कि मैं स्वयंसेवक हूं। वहां कुछ और यहां कुछ और।

कहते हैं ज़्यादा से ज़्यादा आप हम पे साम्प्रदायिकता का इल्ज़ाम लगा सकते हैं, आतंकवाद का इल्ज़ाम नहीं लगा सकते। मैंने सोचा, ग़नीमत है इतना तो मान रहे हैं। लेकिन इतना नहीं समझ रहे हैं कि साम्प्रदायिकता बढ़के आतंकवाद, फ़ासिज़्म तक आराम से, बड़ी आसानी से पहुंचती है, जो मुझे यकीन है अवाम बहुत साफ तरीक़े से देख रहे हैं। फिर भी एल.के.आडवाणी कहते हैं कि हम सत्ता में आये तो कैसे आये? बाबरी मस्जिद तोड़कर ही तो आये। सही कहते हैं, बिल्कुल सच कहते हैं। एक बात तो सच कहते हैं—उसी के बल पर तो आए। और किस तरह बहुत से वोट देने वालों को बरग़लाया वो खुद ही में एक चमत्कार है। और सत्ता में आ गये। अब उनका ख़याल है कि उसी प्रोग्राम में फिर एक बार चकमा दे देंगे। तो मेरा अपना ज़ाती ख़याल है कि दो बार ग़च्चा खाने वाली ये मख़लूक़, ये जनता, ये अवाम नहीं है। वो किसी भी मज़हब, किसी भी दीन के हों। सत्ता का जो रास्ता इन्होंने दिखाया, साम्प्रदायिकता के माध्यम से, वो रास्ता लोगों को इतना साफ़ नज़र नहीं आया, या नज़र आया तो यह मालूम हुआ कि ये सत्ता का ही रास्ता हो सकता है, मज़हब का नहीं है। अपने उद्धार का रास्ता ये नहीं है। देखिये बड़े मोटे रूप से अगर देखा जाए तो सिर्फ़ दो तबक़े हैं—एक शोषक वर्ग दूसरा शोषित वर्ग। वर्ग तो खै़र बहुत से हैं मध्यम वर्ग और निचला तबक़ा वग़ैरा। पर मोटे रूप से दो हैं। तब आपको मालूम होगा कि इसका जो दायरा है बहुत वसीह है। ये फ़र्क आपको एक ग्लोबल लेवल पर भी लाएगा। बम गिरेगा अमरीका का, मार-काट जहां होगी तो एशिया, अफ्रीका, ईस्ट यूरोपियन देशों में होगी, कमज़ोर मुल्कों में, लातिन अमरीका, वियतनाम, कोरिया, कोसोवो, इराक, पूर्वी यूरोप जिसमें रूस भी शामिल है, सोमालिया, चिली वगै़रा। ये ग़ौर करने की बात है कि इनका एक भी बम न्यूक्लियर, उनके मुल्कों पर नहीं गिरा। तो ये कौन सा फ़र्क है? फ़र्क तो वही है। एक बाज़ार खुला है तो हथियारों का और तेल का। कभी आज तक ये सुनने में नहीं आया कि उज़्बेकिस्तान का तेल चाहिए तो अफ़गानिस्तान को अपने हक़ में रखना चाहिए। अफ़गानिस्तान की जो  फंडामैंटलिस्ट सांप्रदायिकता से भरी हुई हुकूमत तालिबान की रही है, उसके हक़ में कौन लिबरल आदमी हो सकता है? ओसामा बिन लादेन का जो मार्ग है उसका कौन भला आदमी, माकूल अक़्ल रखने वाला साथ दे सकता है। लेकिन उसको ठीक करने वाले ये कौन? इसके ऊपर ज़रा सा शक होता है कि क्यूँ? फ़िर यह समझ में नहीं आता कि आतंकवाद ये है कि टॉवर को उड़ा दिया जाये, जो कि है—बहुत ही ख़राब बात है जिस तरह किया गया।

लेकिन दूसरे ये के आपको अभी सबूत भी नहीं मालूम और सारे मुल्क के तमाम गरीब अफ़गानों को आप पीसे चले जा रहे हैं। कारपेट बॉम्बिंग कर रहे हैं। साथ-साथ खाना बरसा रहे हैं पब्लिक रिलेशन्ज़ के लिए। और कुछ अपने ज़मीर के लिए, वो भी मलामत ज़रूर करता होगा। कैथोलिक ज़मीर भी मलामत कर सकता है, करता होगा, वो भी मज़हबी लोग हैं। तो उसकी तलाफ़ी के लिए कुछ दवाएं फेंक दो, कुछ खाना फेंक दो। किसी ने कहा कि भई सिर्फ खाना और दवा फेंकते तो क्या तालिबान का निज़ाम उलट नहीं सकता था? ऐन मुमकिन है कि उलट जाता। इसलिए कि भूखों मर रहे थे, दाने-दाने के लिए मोहताज थे तालिबान के ज़माने में भी, अब तो और भी बुरी हालत है। एक वो पॉलिसी हो सकती थी। ये तो मिलिट्रीज़्म है जिसमें उनको उज़्बेकिस्तान का तेल चाहिए, जिसका जिक्र उनके होंठों पर कभी नहीं आता है। जिसकी पाइप लाइन वो अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान, हिन्दुस्तान से पूर्वी एशिया तक ले जायें और करोड़ों डॉलर कमाएं। इस प्रोग्राम के बारे में आप टी.वी. पर नहीं सुनेंगे। हमारा मीडिया मुस्तक़िल ये बात कर रहा है कि कट्टर आतंकवादी जो हैं, सारी दुनिया से उनको नेस्तोनाबूद करने के लिए हम निकले हैं। इसके अंदर अटल बिहारी वाजपेयी भी शामिल हैं और परवेज़ मुशर्रफ़ भी और टोनी ब्लेयर भी। उसका नाम हमारे दोस्तों ने रखा है—बुश का नौकर। वो बुश के नौकर की तरह घूमते रहे। बहुत परेशान कभी भारत, कभी पाकिस्तान, सीरिया, फिलीस्तीन। वो घुमा रहा है वो चल रहे हैं। तो मिलिट्रीज़्म को क्या आतंकवादी नहीं कह सकते। तो मक़सद अगर कुछ और है, सारा का सारा पॉलिटिकल है, इकनॉमिक है, बाज़ार से ताल्लुक़ रखता है। ग्लोबलाइज़ेशन, कन्ज़्यूमरिज़्म से ताल्लुक रखता है। तो फिर इस लड़ाई का मतलब क्या है? क्या आप दुनिया से कट्टर आतंकवाद को मिटा रहे हैं? जिसको आपने खुद मौक़ा दिया पनपने का, अमरीका में उसको पाला पोसा, तरबीयत दी, उनको सब सिखाया, कि किस तरह टैरिरिज़्म करते हैं, बम बनाते हैं, कैसे हवाई जहाज़ उड़ाते हैं, तालिबान को सिखाया, ओसामा को सी.आई.ए. ने ट्रेंड किया। ये कम्युनिज़्म को हटाना चाहते थे, रूसियों को भगाना चाहते थे, जब वो हट गए तो वो भी मिल गए, उन्हीं की बनाई हुकूमत वहां रूस में भी है। अब मुसीबत यह आ गई है कि हम शिकार हो गये हैं ऐसी दुनिया के जिसके अंदर कुछ तो टेंशन पहले थी, कुछ रोक-थाम थी। दो बड़ी पावर्ज थे। अब तो एक बड़े भाई डंडा लिए घूम रहे हैं चारों तरफ सारी दुनिया की नाक में दम कर रखा है। तो साम्प्रदायिकता वहां तक ले जाती है। हिटलर के फा़सिज़्म को साम्प्रदायिकता कहने पे मैं मजबूर हूं। बुश साहब की सारी पॉलिसी को सिवाए टैरेरिज़्म या मिलिट्रीटैरेरिज़्म के जिसमें बहुत कम फ़र्क़ मुझे नज़र आता है और कुछ नहीं कह सकते। असली मक़सद ही है मुरादाबाद के बर्तन बनाने वाले, सूरत के दर्ज़ी, अहमदाबाद के कारख़ानेदार, जितने भी मुसलमान हैं, सब यहां से भागें। एक साहेब ने टीवी पर, बी.बी.सी पर गुजरात के बारे में खुलकर कहा था कि हम मुसलमान को मारेंगे और इस तरह कि हमको कोई ताल्लुक नहीं कि खून गिर रहा है। बिना तलवार के, बिना खंजर के, रोज़गार छीन लेंगे तो ज़ाहिर है ये बहुत मारना है।

अब रही मुस्लिम सांप्रदायिकता। जिसको उन्होंने पनपाया और बैकवर्ड रखा। और एक से एक इमाम बुखा़री पैदा हुए हैं और सबने ले ली हाथ में बागडोर, सारे मुसलमानों की रहनुमाई की। मुश्किल ये है कि लिबरल क़िस्म का कोई मुस्लिम लीडर बन के सामने खड़ा नहीं हुआ। एजुकेशन, बैकवर्डनैस अलग और ज़्यादतियां अलग। साम्प्रदायिकता हुई। एक नेटवर्क मुसलमानों का, साम्प्रदायिकता का, आतंकवाद की हद तक का मुझे नज़र नहीं आया है, उस कट्टरपन के बावजूद। मुसलमानों में जो लिबरल हैं उनकी मुसीबत ये है कि गरीब और अमीर के फर्क को देखते हैं और सोचते हैं कि गरीब हिन्दू, गरीब मुस्लिम, गरीब ईसाई, ग़रीब सिख, जितने भी हैं, वो एक वर्ग के हैं। और जिनके पास धन है, दौलत है, मकान है, सब कुछ है, वो दूसरे तबक़े के हैं। लड़ाई इन दो तबक़ों की है। ग़रीबी, मज़हब के फ़र्क़ को नहीं मानती। दोनों मुश्तरक हैं। चुनांचे दोनों में जितने भी समाज के लोग हैं उनको एक रहना चाहिए। ये तो बहुत अच्छा प्रोग्राम है। लेकिन उसके साथ-साथ मुसलमानों को बरग़लाने के लिए मुल्ला क़िस्म के लोग इधर-उधर खड़े ज़रूर हो गये हैं। स्टूडेंट्स का, मदरसे का जो सिलसिला चल रहा है, बहुत ही महदूर किस्म की पढ़ाई वहां होती है। उस पढ़ाई में कुछ आमदनामे को, फ़ारसी की दख़ल है। कुछ कुरान शरीफ़ की दखल है। कुछ नमाज़ कैसे पढ़ते हैं। ये तो पुराने मदरसे हुए, जिससे मैं भी निकला हूं। उसके बल पे और बहुत कुछ हासिल भी कर लिया। वो फ़ारसी बहुत कम थी, ऐलिमैण्टल थी। कुरान के क़िस्से-कहानियां जैसे महाभारत में हैं, बहुत दिलचस्प किस्से हैं। हर मज़हबी क़िताब में मिलेंगे। वही हमारा कल्चर है। बाइबल में है, बहुत ही ड्रामेटिक क़िस्से। खुदा से विरोध के, जो सबरे अय्यूबी, लैंहने दाउदी, दाउद को डेविड कहते हैं बाइबिल में, बहुत अच्छा गाते थे, रबाब बजाते थे। सुलेमान जिनको सोलोमन कहते हैं, बड़े अच्छे शायर थे, इश्क़िया पोइट्री करते थे। बादशाह थे। बिलक़ीस पे आशिक हुए थे। और वो भी उसको नहाते हुए देख लिया बरहना बदन, तो आशिक हो गए थे। चुनांचे उसके शौहर को लड़ने के लिए, फ्रंट पर भेज दिया इस उम्मीद से कि वह मर जायेगा और चुनांचे वह मर गया। और इस बिना पे उससे शादी की। ह्यूमन स्टोरीज़ महाभारत से लेकर कुरान तक में मौजूद हैं। यह हमारा कल्चर है। वो कल्चर नहीं है, कि मुस्लिम अच्छा है, हिन्दू बुरा है। सिमी जिस पर बैन लगाया गया है और यहां दिल्ली में पकड़ लिया स्टूडैण्ट्स को। पोटा शुरू किया है। ऐसी-ऐसी चीज़ें जिनमें फासिज़्म की बू आती है। टाडा का नाम बदलकर पोटा रख दिया है। पोटा भी अजीब है, टाडा भी अजीब था। आवाज़ ही अजीब है। मुलाहिज़ा कीजिये ये इनकी एस्थैटिक सैन्स है, साउंड सैन्स है। इनका नेटवर्क, शिवसेना का वी.एच.पी. का, इंग्लैंड, अमरीका तक फैला है। वो आतंकवादी नहीं है। ये हैं, हमारे सर पर बैठे हैं। हुकूमत कर रहे हैं। मौक़ा मिला है टर्म कर लेंगे। यू पी सामने है, खुदा करे हारें, कुछ तो उनको अक़्ल आये। वहां हारे तो शायद सैंटर में भी हारेंगे। सैंटर में तो अगले वक़्त नहीं आएंगे। खुदा न करे ये आयें। ये अगर आये तो बड़ा ग़ज़ब ढाने वाले हैं। अगर मैजोरिटी से एक बार आ जाएं फिर आप इनका असली चेहरा देखेंगे-फ़ासिज़्म से भरा हुआ। अगर थिओक्रेटिक स्टेट पाकिस्तान में बन सकती है तो थिओक्रैटिक स्टेट यहां भी बनना चाहिए। अगर उनके पास एटम बम हैं, तो हमारे पास भी एटम बम होना चाहिए। ये सब तरीक़े समझौते और शान्ति अवाम के अमन और उद्धार, रोज़ी-रोटी के साधन पैदा करने के नहीं हैं। करोड़ों रूपये कारगिल में बर्बाद। हज़ारों, सैंकड़ों नौजवान कारगिल में ख़त्म। बेवाएं घूम रही हैं, माएं बेटों से महरूम। ख़ामखाँ की लड़ाई। साम्प्रदायिकता थिंकिंग हो जाए तो कौन कह सकता है कि मज़हब का पालन करने वाले हैं। मज़हब के बारे में इतना तो नहीं जानते हैं जितना स्कॉलर्स जानते हैं, चाहे वह हिन्दू हों या मुसलमान। मेरा ख़याल है कि मैं भी हिन्दू मज़हब के बारे में जानता हूं थोड़ा-बहुत। और अगर तुलना की जाये इनके जो राजनैतिक नेता हैं उनसे, तो उस नेता का पलड़ा कम पड़ जायेगा, शायद मैं ज़्यादा जानता हूं। जो जानते हैं, वो इतना गलत जानते हैं कि वो जहालत के बराबर जानते हैं। या जो उसका प्रयोग है वो जहालत के बराबर है। बाबरी मस्जिद को तोड़ना उसे आतंकवाद ही कहेंगे। इनकी नज़र में संस्कृति ऐसी है कि उसे बंद कर दो डिब्बे में और फिर दान की तरह बांटो लोगों में, कुछ योगदान, कुछ ग्रांट यहां वहां। कुछ परफ़ॉर्मिंग आर्ट्स, कुछ संगीत, कुछ नाच। तो जहां तक इन कलाओं और हम कलाकारों का ताल्लुक है, तो हमारा तो कोई वोट बैंक है ही नहीं। जहां वोट बैंक है वहां विभाजन पैदा किया गया है। और वो विभाजन सिर्फ़ मज़हबों के बीच में नहीं है, कास्ट के बीच में भी है। ऊंची जात का आदमी, नीची जात का आदमी, ठाकुर का अलग, दलित अलग, सब वोट बैंक क़ायम करके इसको अपनाओ और सत्ता का रास्ता सीधा रखो। इसका ताल्लुक न तो विकास से है और न धर्म मज़हब से। सीधे-सीधे सत्ता का रास्ता है। प्रशासन का भी रास्ता नहीं है। गुड गवर्नेस, इसमें से निकलना बहुत मुश्किल है। संस्कृति को आप फ़ाइल में बंद नहीं कर सकते, डिपार्टमैंट में बंद नहीं कर सकते। अगकर कल्चर हमारा ओढ़ना-बिछौना है, संस्कृति अगर हमारे संस्कारों से ताल्लुक रखती है, अगर हम किस तरह काश्त करते हैं, कौन सी खाद इस्तेमाल करते हैं-वो हमारा कल्चर है। किन-किन जड़ी-बूटियों से हम सेहत के बारे में जानते हैं, हमारी माएं और हमारे बुजुर्ग। जो हम चुटकुले जानते हैं, वो हमारा कल्चर है। अगर ये इस तरह से फैला हुआ है, परवेसिव है कल्चर, तो फिर आपने कल्चर को प्रिज़र्व करने का दम क्यों भरा? यह दावा तो ग़लत है। इसलिए कि आपने आसमान के तमाम दरीचे खोल दिये हैं। वहां से जो क़दरें बरसें दुनिया भर की एलियन, ग़ैर मुल्की, गलत क़िस्म के बदबूदार, पॉप म्यूज़िक, हिन्दी गलत बोल रहे हैं, विज्ञापनों की वजह से, अमरीकनों की तरह हिन्दी बोली जा रही है। कल्चर पे प्रहार है, बच्चे अपने पुरखों से बिछड़ गये हैं, उनकी अपनी दादी-नानी की कहानियों से तरबीयत नहीं हो रही है।

एक बार ई एम फ़ॉस्टर ने कहा था- दोज़ हू आर बोर्न इन फ़्लैट्स माई डियर हैव नो एनसेस्टर्स। ये एनसेस्टर्स के बग़ैर वाले बच्चे पैदा हो रहे हैं, ये नई पौध जो आ रही है। कोई तालमेल कहीं से भी नहीं है। एक डिपार्टमैंट मौजूद है कल्चर का, हर स्टेट के पास, सेन्टर के पास भी मौजूद है। मगर फ़ॉरेन मिनिस्ट्री कोई अलग पॉलिसी चला रही है। आई एंड बी का विभाग अलग प्रोग्राम चला रहा है। कृषि का प्रोग्राम बिल्कुल अलग क़िस्म से चल रहा है, ग्रीन रेवोल्यूशन लायेंगे। इन्टलैक्चुअल प्रोपर्टी राइट्स की ऐसी-तैसी कर रखी है। गोया बासमती, नीम, ज़ीरा और जाने क्या-क्या और जायेगा। दनादन पेंटेंट किया जा रहा है और कैलीफ़ोर्निया पहुंच रहा है, शिकागो जा रहा है। उसकी तरफ़ इनका ध्यान नहीं है। फ्रांस कहता है, आम हमारी प्रोपर्टी है कभी कोई और मुल्क कहता है, उसका है। बंगलौर का आम वहां का आम नहीं है। तो बाज़ार के ज़ोर पे ये हमसे क्या-क्या छीन लेंगे। मल्टीनेशनल का ज़ोर है, बाज़ार गर्म है। हॉट मनी चली आ रही है। प्रभात पटनायक कहते हैं—यहां से पैसा लोन लिया और प्रोडक्शन में नहीं डाला। घूम के रुपया कमाया और दूसरे मुल्क में डाल दिया और घूमता रहा पैसा। पैसे से पैसा बढ़ता रहा पर प्रोडक्शन में, पैदावार में किसी तरह मददगार नहीं हुआ। मैनेजन पांडेय इसको कहते हैं—लक़वाग्रस्त चेतना। एब्सोल्यूटली पैरालाइज़्ड बाई नॉनथिंकिंग। इसका हम शिकार हो रहे हैं। इस बाज़ार के अंदर जो कन्ज़्यूमरिज़्म है, दो मिनट प्रोग्राम दिखेगा और दस मिनट के विज्ञापन। एंड दैड इज़ थ्रोइिंग इट डाउन योअर थ्रेट ऑल द गुड्स थ्रू दैट मीडियम। कल्चर की क्या सेवा हो रही है? वो तो मिटने की चीज़ें हैं, मिट जाएं, हमारे सारे संस्कार, हमारे नाच, गाने, गीत। दम भरते रहें महाभारत के, रामायण के, कल तक वो भी ऐसा रूप ले लेंगी कि पहचान में नहीं आएंगी। तो हर लिहाज़ से अगर इस तंगनज़री से देखा जायेगा तो विकास का पहलू निकलता नहीं है। विकास के पहलू के सिलसिले में लिप सर्विस तो दुनिया भर की है। डीसैंट्रलाइज़ेशन एक लफ़्ज़ ये ही ले लीजिए। क्या डीसैंट्रलाइज़ेशन हो रहा है? पंचायती राज क़ायम हुआ वहां, क्या हो रहा है? —डुप्लीकेशन एंड रेप्लीकेशन ऑफ़ ए सिस्टम विच इज़ फुल ऑफ नपोटिज़्म एंड करप्शन एंड ऑल द अदर कन्ट्राडिक्शंज़। वहां गांव में भी मैंने देखा कोई फ़र्क नहीं है। विधानसभा में, लेजिस्लेटिव एसेम्बली, पार्लियामेंट और पंचायत में। उसी की छोटी फ़ॉर्म है और वहां भी कुछ लोग उसको पकड़  के बैठ गये और शोषण चल रहा है, करप्शन जारी है। सड़क मेरा एक नाटक है। सड़क के माध्यम से बैलाडिला का लोहा जाता है जापान। एक आदिवासी इलाक़े से सड़क गुज़र रही है—उस लोहे को, एल्यूमिनियम को या कोई और पदार्थ लेकर जाने के लिए। कोई उद्धार उनके रास्ते में पड़े गांव का नहीं है। बल्कि उनके लिए बाज़ारी माल, ख़राब क़िस्म की शराब, जिसमें वो अलग बरबाद हो रहे हैं, पहुंच रही है। पहले वीकली मार्किट शुरू किया था अंग्रेज के ज़माने में। अब हर रोज़ का मार्किट है, सड़क के माध्यम से बेचा जा रहा है और उनका शोषण भी कर रहा है। इस तरह हमारे जितने भी संस्कार हैं उनको मिटाने पर आमादा है। अन्धे इतने हैं कि उनको कुछ नज़र नहीं आ रहा है या आ रहा है तो मुंह मोड़ लेते हैं, उनको तो सत्ता चाहिए। यहां आ गया है पॉलिटिक्ल सिस्टम। गवर्नमैंट और कल्चर में कुछ ऐसा विरोध आपस का है, जैसा किसी सौतेली मां का हो सकता है। या अगर दो बीवियां हैं तो उनके बीच में हो सकता है। कल्चर और गवर्नमैंट का साथ चोली-दामन का साथ नहीं है। धर्म और संस्कृति का तो है। तो जब भी हाथ लगाती है गवर्नमैंट कल्चर के नाम पे किसी चीज़ को, या परफ़ॉर्मिंग आर्ट्स को, या कलाओं को, तो वो कुछ मुरझा के ख़त्म-सा हो जाता है। इट हैज़ गौट ए ब्लाईटिंग इफ़ैक्ट। अगर ये दूर रहें उससे तो बहुत अच्छा है। लेकिन नेकी कर और दरिया में डाल, ये इनको नहीं आता है। ऐसा नहीं करते कि दे दो इनको योगदान, जिसकी ज़रूरत है उन बेचारों को दो तो कंट्रोल करो, अपने आदमी को डालो। चाहे वो बाल भवन हो, चाहे एकेडमी ऑफ़ एडमिनिस्ट्रेशन हो या जितनी भी संस्थाएं हों, पांच साल का मौक़ा मिला है। फिर वोट मिलें न मिलें, कल्चर जाये जहन्नुम में। वो इस वक़्त हो रहा है। एक सपाटपन, होमोजिनाइज़ेशन जो उपभोक्तावाद के माध्यम और ग्लोबलाइज़ेशन के माध्यम से आ रहा है। वो हमारे कल्चर का ज़बर्दस्त दुश्मन है—हर कल्चर का। एक तो डाइवर्स क़िस्म के डेवलपमेंट पैटर्न्स हो सकते हैं अगर खुदमुख़्तारी दी जाये। तो अगर कई लेवल की सोसाइटी है और उनकी सभ्यता अलग-अलग है। सभ्यता से मेरी मुराद वो तमाम सिस्टम जिसका ताल्लुक कल्चर से है। उनके पास है ‘‘माजी’’ सिस्टम, आदिवासियों के पास, ज्यूरिसप्रुडेन्स उसमें शामिल है। कल्चर भी शामिल है। क्या उससे हम नहीं सीख सकते? ज़रूर सीख सकते हैं । पर वो सूट नहीं करता। बड़ा ही बेआरामी का रास्ता है उस क़िस्म का विकास।

साक्षरता जैसे आन्दोलन पे अगर पाबन्दी लगाई जाए, इसलिए कि साक्षरता के माध्यम से भी आदमी क्रांति तक पहुंच सकता है, बदलने तक, समाज में परिवर्तन लाने तक। क्योंकि अगर चेतना पैदा की जाये अक्षर के सिलसिले में कि आपकी क्या ज़रूरतें हैं और उसका क्या समाधान है, और वो उनके पास मौज़ूद है। और उसमें एकता और संगठन आ जाये तो उससे वो लोग डरते हैं, तो उसके बरसरे इख़तिदार हैं। चाहे तो बी.डी.ओ. हो, चाहे कलैक्टर हो, चाहे तहसीलदार हो। ये लोग साक्षरता का भी आंदोलन चलाते रहे हैं। बड़े ज़ोरों में साक्षरता का आंदोलन शुरू हुआ। केरल इनक्लूडिड, पहल तो उसी ने की। फिर जाकर ग़र्क कर दिया इन्होंने आंदोलन। इसलिये उसकी आग महसूस होनी लगी कि अपनी कब्र खोदना है, ये तो अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारना है। इसलिये कि अजीब चेतना पैदा हो रही है लोगों में। यह एहसास पैदा हो रहा है कि हम सब मिलकर चाहें तो वो परिवर्तन ला सकते हैं, जिससे हमें पार्टीशिपेशन, भागीदारी मिल जाये सोच-विचार की। शासन के सिलसिले में या प्रोग्राम्ज़, प्रोजैक्ट्स और स्कीमों के सिलसिले में। ये मानकर चले हैं कि ये तो अनपढ़ हैं, गंवार हैं, जाहिल हैं, बेवकूफ़ हैं—ये तो एक ज़माने से चला आ रहा है। शिक्षा जो है वो एक कारखाना है, ऐसे बेवकूफ़ों को पैदा करने का। उनकी सोच-समझ मफ़लूज़ हो जाये, लक़वाग्रस्त हो जाये और वो ही नज़र आये कि ये कपड़े अच्छे हैं। और वो जो मेरा समाज पहनता है, आदिवासी या कोई भी , उसके प्रति घृणा हो। अगर वो किसी स्कूल का चपरासी बन जाता है तो वो अपने आप को बेहतर समझता है बनिस्बत उस आदमी के जो गा रहा है, नाच रहा है। एक एम.एल.ए. साहिब ने दो दशक पहले कहा था—शेख़ गुलाब की स्कीम के जवाब में उनकी स्कीम थी आदिवासी बच्चों को नाच-गाना सिखाने की। उनके लिए ग्रांट मिले। बड़े गुस्से में एसेम्बली में एक आदिवासी खड़ा हुआ और कहा— ‘व्हाट, माई चिल्ड्रन विल सिंग एंड डांस। सरटेनली नॉट, दे शैल बी एजुकेटिड।’ एजुकेटिड का मतलब समझे! तो शिक्षा में संस्कृति का कोई अंश आपको नहीं मिलेगा। एक टीचर से बस्तर में मेरी मुलाकात हुई। स्कूल बंद, टीचर गायब, बच्चा कोई नहीं। पता लगाया कि क्या हुआ। टीचर ने अपना रोना रोया- इतनी दूर से आना पड़ता है। बच्चे नहीं आ रहे तो क्या करूं, तनख्वाह लेता हूं और बैठा रहता हूं घर में। गांव वालों से पूछा उन्होंने कहा-क्या किस्सा है? बच्चे काम करते हैं उससे हमारी रोज़ी-रोटी चल रही है। टीचर को तो तनख़्वाह मिल रही है। अगर हम बच्चों को स्कूल भेजें तो उसकी तनख्वाह में से हमें भी मिले। उसे पढ़ाने की तनख़्वाह मिलती है तो हमें पढ़ने की तनख़्वाह क्यों नहीं मिलती? बड़ी माकूल बात लगी। उस कमबख़्त को तो पढ़ाने की तनख़्वाह मिल रही है हमारे बच्चे भूखों मर रहे हैं, इनको पढ़ने की तनख़्वाह मिलनी चाहिए। वज़ीफा मिलना चाहिए। वहां पर शिक्षा का कार्यक्रम आगे नहीं बढ़ा है। जहां बढ़ा है वहां उन्हें एलिनिएट कर रहे हैं। कारख़ाना है जो शिक्षा को जो निज़ाम है। इसकी शिकायत एक ज़माने पहले गांधीजी ने खुद की थी कि मैं अपने लोगों को बाबू नहीं बनाना चाहता। मैं बुनियादी एजुकेशन चाहता हूं ताकि वो काम की चीज़ें सीखें। मगर किसी ने ध्यान नहीं दिया। गांधीजी महात्मा थे, पर प्रोग्राम गलत था, ये कहने की ज़रूरत ही नहीं है। हम चालू भी नहीं करेंगे। उनके पास संस्कृति का भी कोई विज़न नहीं था और इकोनॅमी भी नहीं जानते थे। वो चाहते थे कि सेल्फ़ रिलायन्ट अहिंसावादी कन्ट्री पैदा हो। ये साम्प्रदायिकता, ये आतंकवाद उनके ज़हन में नहीं थी, न ही किसी भी माकूल आदमी के ज़हन में।

तो शिक्षा की भी बहुत ज़्यादा दुश्मनी संस्कृति से पैदा हो गई है। शिक्षा व्यवस्था और कल्चर में आपसी विरोध पैदा हो गया है। अब  खुद ही आप कल्चर में डूब जायें तो एक अलग बात है। शिक्षा के माध्यम से कल्चर की तरफ रास्ता नहीं निकलता, बहुत दूर हटता है। तो गोया चूंकि हमारे पास कोई वोट बैंक नहीं है और जिसे कल्चर कहते हैं वो इनकी नज़र में इनडिफ़ाइनेबल है तो जो चाहते हैं, करते हैं। जो विकास की परतें हैं उसमें भी घपला है और तो बाज़ार खुल गये हैं उसमें भी घपला है। हथियार और तेल में भी दग़ा, धोख़ा-फरेब है। ये जो होमिजिनाईज़ेशन आ रहा है उसके अंदर भी कल्चर पर ही प्रहार है। समाज में परिवर्तन सब कुछ लाया जा सकता है। हम लोग इप्टा में पी.सी.जोशी की सरपरस्ती देख रहे थे, जिन्होंने इतने ज़बर्दस्त आंदोलन को अपनी रहनुमाई में जन्म दिया था। वक़्त बदला, वहां से हटे, इलाहाबाद आये। यहां प्रेम सागर गुप्ता और डांगे साहब से मिले कि एक ट्रेड यूनियन थियेटर क़ायम किया जाए। प्रेम सागर गुप्ता को बात अच्छी लगी, डांगे साहब को भी अच्छी लगी, पर नतीजा कुछ नहीं निकला। पी.सी.जोशी के पास विज़न था। कल्चर में अगर डटे रहो तो समाज में पूरा परिवर्तन राजनैतिक भी निकलेगा। और यहां क्या है उल्टा, जो अभी चल रहा है इस वक्त-कांग्रेस से लेकर भाजपा तक, जिसका राज कायम हुआ। राजनीति और सत्ता के माध्यम से जाकर सीधा कल्चर पर प्रहार का मतलब आप के जीने के तरीके और पहचान को नेस्तनाबूद कर दो, उसे सपाट बना दो कि उस दुनिया का आप एक हिस्सा बन जायें जैसे कि अमेरिका, फ्रांस इत्यादि। ये फ़र्क तो मिटेगा नहीं। वो मिटाना भी नहीं चाहते, लेकिन हमें ये भ्रम है कि हम लाट साहब बन जाएंगे अगर अपनी गुलामाना ज़हनियत को लिए उनकी नक़ल पे चलते हुए, उन्हीं के रास्ते चलते रहेंगे।

मैं अपने वक्तव्य को समाप्त करता हूं, बहुत-बहुत शुक्रिया।
(नौवां सफदर हाश्मी स्मृति व्याख्यान, नवंबर 2001)

साभार: हमने हबीब को देखा है  

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