Readings - Hindi

साझी विरासत

जहान-ए-खुसरो

सुशील जोशी

ऐसा वक्त जब कट्टरपंथ अपने धार्मिक उन्माद को पूरा करने के लिए हमेशा सुर्खियों में बने रहते हैं। जब धर्म के नाम पर समाज को बांटा जाता है और जिस समाज में दो प्यार करने वाले लोगों को भी मजहब की दीवारों से रोकने का प्रयास किया जाता हो और जहां कि मीडिया कर्मियों और उनके दफ्तरों को भी नहीं बख्शा जा रहा हो जो कि हमारे समाज का आईना दिखाते हैं, ठीक उसी वक्त में एक दूसरी दुनिया भी कहीं किसी कोने में नजर आई जहां पहुंचकर सांस लेने से एक अजब सुकून महसूस हुआ ये दुनिया थी ‘खुसरो’ की, जात-पात, धार्मिकता और सारे बंधनों से दूर सिर्फ प्यार का अहसास कराती जहान-ए-खुसरो की दुनिया।

जहान-ए-खुसरो हर साल हजरत अमीर खुसरो के सम्मान में होने वाला एक अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम है, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है ये खुसरो को एक श्रद्धांजलि स्वरूप है। आज की पीढ़ी भले ही सूफी गीत संगीत की बारीकियों से अंजान हो लेकिन खुसरो से जरूर वाकिफ है क्योंकि खुसरो सिर्फ सूफी संगीत या शायरी तक ही सीमित नहीं रहे। उनके द्वारा रची गई पहेलियां आज भी घर-घर का हिस्सा हैं।

जहान-ए-खुसरो को शुरू हुए सात साल हो चुके हैं इसे सन् 2000 में मशहूर फिल्मकार मुज्जफर अली ने शुरू किया था। बकौल अली सूफी कलाम के अल्फाज़ दिल और समाज की बातें कहते हैं, इनका असर रूह तक होता है। भले ही सूफी आंदोलन का एक निश्चित दौर था जो सदियों पहले गुजर गया लेकिन सूफीज्म में वो ताकत है कि हर दौर में इसकी जरूरत महसूस होती है। इसीलिए इस कार्यक्रम का ये सिलसिला पिछले सात सालों से बदस्तूर जारी है।

हजरत अमीर खुसरो की याद में ये कार्यक्रम हर साल मार्च-अप्रैल के इसी मौसम में आयोजित किया जाता है और चूंकि इसके लिए किसी ऐतिहासिक या पुरातात्विक महत्व की इमारत को चुना जाता है तो इस बार इसका आयोजन किया गया था कुतुब मीनार के पास कुली खान के मकबरे पर।

जहान-ए-खुसरो अब विश्व स्तरीय बन चुका है क्योंकि पिछले साल अक्टूबर में इसे बोस्टन म्यूजियम ऑफ फाइन आर्ट्स में भी आयोजित किया गया था। इसके अलावा इस बार का ये कार्यक्रम इसलिए भी खास था क्योंकि यूनेस्को ने 2007 को अंतर्राष्ट्रीय रूमी वर्ष घोषित किया है जिसकी औपचारिक तौर पर घोषणा मार्च 2006 में यूनेस्को और टर्की की पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय पहले ही कर चुका था।

मौलाना जला-उद्-दीन बाखी रूमी को हम एक बड़े कवि, ज्ञाता, दार्शनिक और मानवतावादी के तौर पर जानते हैं। यूनेस्को ने मौलाना रूमी की उनके जन्म की 800 वीं पुण्यतिथि पर उनके सम्मान में एक पदक देने की भी घोषणा की है।
दी दान दे गर आमूज़
शान-इ-दान दे गर आमूज़
देखना और सोचना नया (वास्तविक) तरीका है

मौलाना रूमी की कही ये पंक्ति शायद उन लोगों को कुछ समझा पाए जो सिर्फ धर्म के नाम पर हर चीज बेचना और बांटना चाहते हैं।

सवाल है कि मौलाना रूमी कौन हैं, रूमी एक बड़े कवि, दार्शनिक तो थे ही साथ ही बहुत बड़े ज्ञानी भी थे, इस्लाम को भी मानते थे। वो हज पर भी गए। लेकिन उनका संदेश एक ही था, उन्होंने खुद अपने लिए भी कहा कि न तो वो जीयु है ना ईसाई, ना यहूदी और ना ही मुस्लिम, वो सिर्फ और सिर्फ यही कहना चाहते हैं कि हम सब एक ही ईश्वर की संतान हैं और जात-पात, धार्मिक बंधनों से ऊपर उठकर सोचना चाहिए।

मन-तू-शुदम तू मन शुदी,
मन तन-शुदम तू जां शुदी
ताकशन गोयद बाद अज़ीं
मन दिगरम तू दीगरी

हजरत अमीर खुसरो का ये शेर ऊपर कही गई बात को भी कहीं न कहीं सार्थक करता है। खुसरो बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनका झुकाव सिर्फ शायरी या संगीत तक ही नहीं था बल्कि वो राजनीतिक चहल-पहल में भी खासी रुचि रखते थे। कहते हैं कि हिंदुस्तानी शास्त्राीय संगीत और कव्वाली इन्हीं की पैदाइश हैं साथ ही सितार और तबला के जनक के रूप में भी उन्हें ही जाना जाता है और उर्दू के पिता भी खुसरो ही कहे जाते हैं।

खुसरो के कलाम में बहुत विविधता है। वो फारसी और हिंदुस्तानी दोनों में ही लिखते थे। इसके अलावा वो संस्कृत, तुर्की और अरबी भी बोलते थे। खुसरो के कलाम का एक बहुत ही अच्छा उदाहरण है—
ज़िहाल-ए-मिस्किन मकून तगाफुल
दुराएं नैना बनाए बतियां
कि ताब-ए-हिज्रा न दारम ए-जान,
ना लेहो काहे लगाए छतियां

खुसरो की इस कविता में पहली पंक्ति ‘जिहाल-ए-मिस्किन’ फारसी में है तो दूसरी लाइन में ब्रज भाषा का इस्तेमाल है, फिर तीसरी पंक्ति फारसी की है तो चौथी में फिर से ब्रज भाषा का  प्रयोग किया गया है। सच ही है कि इतनी विविधता शायद खुसरो के अलावा कहीं और देखने को नहीं मिली।

जहान-ए-खुसरो भी विविधता में एकता का ऐसा ही अनूठा प्रयास है जिसमें एक ही मंच पर देश-विदेश से कलाकार आते हैं और अपनी पेशकश से लोगों को रू-ब-रू कराने की कोशिश करते हैं। इस आयोजन की शुरुआत हुए सात साल हो चुके हैं और हर बार इसे देखकर यही एहसास होता है कि शायद हमारी मूल्यों, परंपराओं और धरोहरों को सहेज कर लोगों तक पहुंचाने की ये कोशिश कामयाब होती नजर आ रही है।

जहान-ए-खुसरो की इस बार की थीम थी—वॉइस ऑफ वूमेन। कार्यक्रम के खास आकर्षण थेµनिज़ामी ब्रदर्स (दिल्ली), आदिल हुसैनी एंड ग्रुप (हैदराबाद) और शौकत अली एंड ग्रुप (लुधियाना), विदेशी कलाकारों की बात करें तो सबसे ऊपर नाम हैµआबिदा परवीन (सूफी गायिका, पाकिस्तान), बेंडी जेहलेन (डांसर, कोरियाग्राफर, यू.एस.ए.), सुज़ैन डेहिम (कंपोजर, गायक, अमरीका) और ईरानी संगीतकार।

भारतीय कलाकारों में प्रसिद्ध कव्वालों के अलावा कई नाम थेµइनमें ग्वालियर घराने की मीता पंडित, मालिनी अवस्थी, रेखा भारद्वाज, जावेद जाफरी और सुनीत टंडन। तीन दिन तक चलने वाले इस कार्यक्रम के प्रायोजक थे रूमी फाउंडेशन, दिल्ली टूरिज्म और दिल्ली सरकार।

विदेशी कलाकारों में से वेंडी जेहलेन जोकि पिछले 12 सालों से सूफीज्म की गहराइयों में खुद को उतारने की कोशिश कर रही हैं, ने शो को बहुत ही मनमोहक अंदाज में अपने नृत्य के जरिए ओपन किया। वेंडी के ‘समां’ की प्रस्तुति ने लोगों को मनमोहक ढंग से बांधे रखा। ‘समां’ दरवेश नृत्य को कहा जाता है इसमें सब कुछ भूलकर बस चारों तरफ घूम-घूमकर उस चरम को प्राप्त करने की कोशिश की जाती है। मौलाना रूमी भी उसी दरवेश नृत्य, गीत-संगीत के लिए जाने जाते हैं।

13 वीं शताब्दी में जब धार्मिकता और रूढ़िवादिता अपने चरम पर थी तब सूफी आंदोलन का दौर था और जैसा कि कहा जाता हैµइतिहास दोहराता है, काफी हद तक ठीक भी है। आज भी जिधर नज़र डालें सूफी संगीत का ही दौर नज़र आता है। लोग क्यों इसके पीछे भाग रहे हैं, क्यों इसे पसंद कर रहे हैं, शायद इनका जवाब देने की जरूरत नहीं क्योंकि इन्हीं सब कड़ियों को जोड़ने की कोशिश की है मुज्जफर अली ने जहान-ए-खुसरो के रूप में।

जहान-ए-खुसरो को अगर हम मौजूदा परिप्रेक्ष्य में देखें तो इसकी अहमियत और ज्यादा नजर आती है। आज का युवा, हमारा समाज या समाज का कोई एक तबका भी अगर इन कड़ियों के निचोड़ को समझ पाया था, आत्मसात कर पाया तो जहान-ए-खुसरो सार्थक होता है। क्योंकि जहान-ए-खुसरो सिर्फ सूफी संगीत से ही नहीं रू-ब-रू कराता बल्कि ये एक ऐसा अंतर्राष्ट्रीय मंच बन चुका है जिसमें विविधता में एकता नज़र आती है और संास्कृतिक गतिविधियों का मेल होता है। विदेशियों से हमें उनकी सांस्कृतिक धरोहर मिलती है तो देशी कलाकार भी हमें हमारी जड़ों से जोड़ने की भरपूर कोशिश करते हैं। जरूरत है तो सिर्फ इसे महसूस करने की, इसे सार्थक करने की।  

QUICK LINK

Contact Us

INSTITUTE for SOCIAL DEMOCRACY
Flat No. 110, Numberdar House,
62-A, Laxmi Market, Munirka,
New Delhi-110067
Phone : 091-11-26177904
Telefax : 091-11-26177904
E-mail : notowar.isd@gmail.com

How to Reach

Indira Gandhi International Airport (Terminal 2 & 3) - 14 Km.
Domestic Airport (Terminal 1) - 7 Km.
New Delhi Railway Station - 15 Km.
Old Delhi Railway Station - 20 Km.
Hazrat Nizamuddin Railway Station - 15 Km.