Readings - Hindi

साझी विरासत

परिधान की साझी संस्कृति

कुसुम लता

दुनिया भर में भारत की पहचान अनेकता में एकता के लिए होती है। यह इसकी विशिष्ट पहचान है। विभिन्न भाषाएं, बोलियां, रहन-सहन के तौर-तरीके, लोक-गीत, खान-पान, पहनावा-ओढ़ावा, मिट्टी-पानी, रीति-रिवाज, रंग-रूप इत्यादि। इतनी सारी विविधताओं के बावजूद यहां एकता मौजूद है। वेशभूषा और पहनावा-ओढ़ावा के स्तर पर भी काफी विविधताएं मौजूद हैं। वेशभूषा भौगोलिक कारकों, जलवायु, सामाजिक-धार्मिक रीति-रिवाजों की बदलती हुई ज़रूरतों के हिसाब से तय होती है। अपने यहां एक लोकोक्ति बहुत प्रचलित है ‘जैसा देस वैसा भेस’ जो कि अपने-आप में इसका सबूत है कि वेशभूषा परिवेश के अनुसार बदलती रहती है। वेशभूषा का उद्गम या उत्पत्ति चाहे कहीं से भी हुई हो वह मेलजोल की संस्कृति और एकजुटता का स्पष्ट चित्रण करती हैं। वेशभूषा साझी विरासत का हिस्सा है। इससे यह मतलब कतई नहीं निकलता कि सभी लोग एक जैसी पोशाकें पहनते हैं बल्कि कहने का तात्पर्य यह है कि वेशभूषा हमेशा बदलते परिवेश में स्वयं को ढालती आई है। वेशभूषा हमेशा अन्य संस्कृतियों और सभ्यताओं से प्रभावित होती रही है। लोगों ने पहनावे-ओढ़ावे में नएपन को स्वैच्छिकता से सराहा और अपनाया है। वेशभूषा में केवल वस्त्र ही नहीं होते बल्कि साज-श्रृंगार की अन्य वस्तुएं जैसे आभूषण, बाल बनाने के अलग-अलग तरीके भी शामिल हैं। लेकिन यहां पर हम सिर्फ वस्त्रों के बारे में ही बात करेंगे।

प्राचीन काल से ही भारत में पुरुषों द्वारा साधारणतः धोती, अंतरिय (शरीर के निचले हिस्से में लपेटा हुआ वस्त्र), उतरिय (शरीर के ऊपरी हिस्से में लपेटा हुआ वस्त्र), कमरबंध (जैसा कि नाम से ज़ाहिर है कमर से बांधा हुआ), और पगड़ी पहने जाते थे। अंतरिय कमर पर कायाबंध द्वारा टिकाया जाता था जो कि अक्सर सामने से कमर के मध्य भाग में बांधा जाता था। महिलाएं धोती, साड़ी, स्तनपट्टा (स्तनों को संभाले रखने के लिए) पहनती थीं। उपरोक्त वस्त्रों की ख़ासियत यह थी कि यह सिले हुए नहीं होते थे। लेकिन बाद में इन वस्त्रों को पहनने के तरीके में काफी बदलाव आए। प्रत्येक काल में मौजूदा शासक और विदेशों के साथ व्यापारिक एवं अन्य ताल्लुकातों का परिधानों पर प्रभाव पड़ता रहा जिसका वर्णन हम नीचे दे रहे हैं।

मौर्य और शुंग काल (321-72 ईसा पूर्व) : इस काल में चीन और फारस के साथ व्यापारिक ताल्लुकात बने। इस काल में महिला और पुरुष दोनों ने वैदिक काल में पहने जाने वाले तीनों अनसिले वस्त्रों यानी अंतरिय, उतरिय और कमरबंध को पहनना जारी रखा। मुख्य परिधान अंतरिय था जिसे पुरुष कूल्हे के चारों ओर पैरों के बीच से कच्छा स्टाइल में लपेटते थे। इसकी लंबाई कमर से लेकर पिंडलियों तक या टखनों तक होती थी या किसानों और सामान्य लोगों के द्वारा इसका छोटा स्वरूप भी पहना जाता था। कायाबंध भी कई प्रकार का होता था जैसे साधारण दुपट्टे की तरह कमर पर बांधा जाने वाला वेथाका; दोनों सिरों पर सुरुचिपूर्ण गोल गांठों वाला कमरबंध मुराजा; कढ़ाईदार पट्टे की तरह का कमरबंध पट्टिका; या दोनों सिरों में कई डोरियों वाला कमरबंध कलाबुका। उतरिय मौसमानुसार या सुविधानुसार कई तरीकों से पहना जाता था। दरबार के लोगों द्वारा बहुत सुरुचिपूर्ण ढंग से पहना जाता था। वे इसे दोनों कंधों पर या सिर्फ एक ही कंधे पर भी लपेटते थे, या छाती में सामने से क्रॉस करने के बाद लपेटते हुए कमर पर बांधते थे, या इसे पीठ पर ढीला-ढाला लटकाते थे और कलाई या कोहनी द्वारा संभालते थे। समाज के गरीब तबके के लिए इसके इस्तेमाल के अनगिनत तरीके थे। लेकिन मज़दूरों और दस्तकारों द्वारा सूर्य की गर्मी से बचने के लिए इसे सिर पर बांधा जाता था या कमर पर कस कर बांधा जाता था ताकि काम करने के लिए दोनों हाथ स्वतंत्र रहें या एक तौलिए की तरह मुंह का पसीना पोंछने के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता था।

महिलाएं अंतरिय भिन्न-भिन्न तरीके से पहनती थीं जो कि मूलतः अपारदर्शी होता था लेकिन वक्त के साथ-साथ ज़्यादा से ज़्यादा पारदर्शी हो गया। अंतरिय को पहनने का एक तरीका था उसे लंगोटी की तरह पहनना। अन्य तरीके थे इसे कच्छा स्टाइल में या लहंगा स्टाइल में पहनना। कच्छा स्टाइल में इसे पहले कूल्हों पर इस तरह लपेटा जाता था कि दोनों सिरों का कुछ हिस्सा लपेटने के बाद बच जाए। बचे हुए लंबे हिस्से की चुन्नट बनाकर उसे सामने से घुसाया जाता था और छोटे बचे हुए हिस्से को टांगों के बीच से निकालते हुए कमर पर पीछे की ओर घुसाया जाता था। लहंगा स्टाइल में कपड़े को कूल्हों पर एक लंबी स्कर्ट की तरह कस कर लपेटा जाता था। इसे टांगों के बीच से नहीं निकाला जाता था। उच्च वर्ग की महिलाओं द्वारा पहना जाने वाला उतरिय महीन कपड़े का बना होता था और अक्सर सर को ढकने के लिए पहना जाता था। उनके कायाबंध पुरुषों के कायाबंध से बहुत मिलते-जुलते थे। इसके साथ वे कई बार कपड़े का एक सजावटी टुकड़ा पटका पहनती थीं जो कायाबंध में सामने से घुसा कर टखनों तक लटका रहता था। दूरदराज़ के गांवों और जंगलों में, गडरिए, शिकारी और इसी प्रकार के अन्य पेशों से जुड़े लोग, जो ज़्यादातर एबओरिजिनल या छोटी जातियों के होते थे, वे साधारणतः खुरदुरे कॉटन का अंतरिय और पगड़ी पहनते थे ठीक उसी तरह जैसे हम आज देखते हैं। इससे भी आदिम जनजातियां जो जंगलों में रहती थीं वे घास और खाल के बने हुए कपड़े पहनती थीं।  

सातवाहन काल (200 ईसा पूर्व-250 ईसा बाद): सातवाहन या आंध्र साम्राज्य मौर्य साम्राज्य के बाद का साम्राज्य है और मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद यह दक्कन में स्थापित हुआ। यह साम्राज्य 460 सालों तक अटूट निरंतरता के साथ टिका रहा और कुछ समय तक कुषाण साम्राज्य के समानांतर शासन किया जिसके साथ सातवाहनों की तकरीबन एक सदी तक लड़ाई होती रही।

दक्कन के लोग हाइब्रिड नस्ल (एबओरिजिनल द्रविड़ों और विदेशी हमलावरों) के लोग थे। ईसा पूर्व पहली शताब्दी में उनके परिधान भी बड़े दिलचस्प तरीके से विदेशी और देसी परिधानों का मिश्रण थे। ईसा पूर्व पहली शताब्दी में हम कनकूका (कुर्ता) का प्रचलन पाते हैं जो धारीदार और घेरेदार डिज़ाइन में होता था और पहरेदारों या शिकारियों द्वारा पहना जाता था। इसके बाज़ू छोटे भी होते थे और बड़े भी। यह मध्य-जांघों तक की लंबाई का होता था। यह बायीं ओर से भी खुला होता था और सामने से भी खुला होता था। राजा द्वारा पहने जाने वाला कनकूका पीछे से खुलता था। इनके गले भी अलग-अलग प्रकार के होते थे जैसे कुछ के ‘वी’ आकार तो कुछ के गोलाकार। इसके साथ में एक मोटा कायाबंध पहना जाता था जो कमर पर एक या दो बार लपेटा जाता था। एक लंबी पगड़ी उशनिसा भी एबओरिजिनल के द्वारा लंबे काले बालों के साथ इस तरह बांधी जाती थी कि परत-दर-परत पगड़ी बांधने के बाद बाल पीछे की ओर खुले रहें।

उत्तर भारत और विदेशी हमलावरों के प्रभाव के फलस्वरूप द्रविड़ एबओरिजिनल महिलाएं भी अपने परिधानों में छोटे अंतरिय का इस्तेमाल करने लगीं जिनके लंबे बॉर्डर होते थे। वे माथे पर टीका और बाजुओं में शंख और हाथी दांत की बनी हुई चूड़ियां भी पहनने लगीं। शाही दरबार  में महिला पहरेदार लंबे पारदर्शी अंतरिय ढीले कायाबंधों के साथ पहनती थीं। राजा और उसके ज़्यादातर दरबारी देसी अंतरिय पहनते थे। छोटा और अनौपचारिक अंतरिय घर पर और लंबा अंतरिय विभिन्न तरीकों से औपचारिक अवसरों पर पहनते थे।

100 ईसा पूर्व से लेकर 250 ईसा बाद के दौरान पोशाकें साधारणतः किफायती और महीन कॉटन की बनी होती थीं। तीनों वस्त्रा अंतरिय, उतरिय, और कायाबंध व्यापक पैमाने पर पहने जाते थे लेकिन विदेशी और देसी परिधानों का मिश्रण भी प्रचलन में था। महिला और पुरुष दोनों के द्वारा पहना जाने वाला उतरिय सामान्यतः सफेद होता था और कॉटन या सिल्क का बना हुआ होता था। पुरुष इसे पीठ पर और दोनों कंधों के ऊपर डालते हुए पहनते थे और बड़े ही अनमने ढंग से छाती के ऊपर डाला जाता था। यदा-कदा ही इसे सिर को ढकते हुए पहनते थे। इस काल में भी अंतरिय महिला-पुरुष द्वारा कच्छा स्टाइल में पहना जाता था। साधारणतः अंतरिय पारदर्शी कपड़े का बना होता था और महिलाओं द्वारा बहुत कस कर और सटा कर पहना जाता था। कायाबंध भी दोनों ही लिंगों द्वारा पहना जाता था। मौर्य काल की तरह ही इस काल में भी कायाबंध को कई तरीकों जैसे वेथाका, मुराजा, कलाबुका और महिलाओं द्वारा पट्टिका की तरह पहना जाता था। एक सिला हुआ कुर्ता कनकूका (जो ईसा पूर्व पहली शताब्दी में भी सातवाहनों में पाया जाता था) राजा के दरबार के पहरेदारों, दरबारियों और दूल्हों द्वारा पहना जाता था। एक देसी लंबा कुर्ता हरम के पहरेदारों द्वारा पहना जाता था।

यह जानना बहुत रोचक होगा कि जिसे आज हम जनेऊ के नाम से जानते हैं वह दरअसल उतरिय का ही संशोधित रूप है। इस काल के अभिलेखों में असली यज्ञोपवित (जनेऊ) या पवित्र धागे का ज़िक्र मिलता है। इससे पहले यज्ञोपवित उतरिय के रूप में पाया जाता था जिसे बाएं कंधे पर दाएं कंधे के नीचे से उपवित स्वरूप में पहना जाता था। इसी उपवित शब्द से यज्ञोपवित शब्द की उत्पत्ति हुई है। यज्ञोपवित तीन सूती धागों को नौ बट देकर बनाया जाता था। क्षत्रिय के लिए यज्ञोपवित जूट के धागे से बनता था और वैश्यों के लिए ऊनी धागे से। कुछ समय पश्चात यज्ञोपवित अन्य जातियों ने भी अपना लिया लेकिन असलियत में यह ब्राहमण जाति में ही सबसे ज़्यादा और सबसे मज़बूत तरीके से अपनाया गया।

कुषाण काल (130 ईसा पूर्व-185 ईसा बाद) : कुषाणों ने अपना साम्राज्य पहली शताब्दी में स्थापित किया। दूसरी शताब्दी में कुषाण सातवाहन और शक साम्राज्य समकालीन थे। कुषाण वेशभूषा को पांच भागों में विभाजित किया जा सकता है :

  1. देसी लोगों द्वारा पहने जाने वाले परिधान जैसे अंतारिय, उतारिय और कायाबंध’
  2. हरम (ज़नानखाना) के पहरदारों और परिचरों द्वारा पहने जाने वाले परिधान - साधारणतः देसी और सिला हुआ कनकूका
  3. विदेशी कुशाण शासक और उनके अनुचर
  4. अन्य विदेशी जैसे दूल्हे, व्यापारी इत्यादि।
  5. पांचवी श्रेणी विदेशी और देसी परिधानों के मिश्रण की है

यह अंतिम श्रेणी खासा दिलचस्प है चूंकि इससे पता चलता है कि किस तरह परिधानों में परिवर्तन हुए और उनका विकास हुआ, चूंकि इससे पता चलता है कि किस तरह लपेटे जाने वाले भारतीय परिधान को सिले और कटे हुए परिधानों ने प्रतिस्थापित किया या उनका स्थान लिया।

कुषाण (इंडो-स्काईदियन) पोशाक घोड़ों के इस्तेमाल पर आधारित खानाबदोश संस्कृति से उभरी है। यह मथुरा, तक्षशीला, बग्राम और सुर्ख कोतल (अफगानिस्तान) में देखी जाती है। यह पोशाक ज़्यादातर स्काईदियन और ईरानी नस्ल के लोगों द्वारा पहनी जाती थी और पारथियन्स से मिलती-जुलती है। यह झालरदार बाज़ूओं वाला घुटनों तक लंबा कुर्ता होता था जो सामने  गले से थोड़ा खुला रहता था। घुटनों तक लंबा और चुस्त कुर्ता कभी-कभार चमड़े का बना होता था। इसके साथ एक छोटा कफतान भी पहना जाता था जो ढीला-ढाला होता था या दाएं से बाएं क्रॉस करते हुए पहना जाता था। कफतान को चमड़े या धातु की बेल्ट से बांधा जाता था। शरीर के ऊपरी हिस्से में पहने जाने वाले इन दो वस्त्रों के अलावा एक तीसरा वस्त्रा चोगा भी कभी-कभार पहना जाता था। चोगा एक कोट की तरह होता था जो कुर्ते से लंबा होता था। चलने में आसानी के लिए यह लंबा चोगा नीचे से थोड़ा खुला रहता था। ढीले-ढाले या सटे हुए एकदम टाइट पायजामा चालाना को खपूसा (नर्म पतावे वाले बूट जो चमड़े के फीते से बांधे जाते थे) में ठूंस कर पहना जाता था।

महिलाओं के परिधान भी विभिन्न प्रकार के थे। गंधार के अभिलेखों में साड़ी के सदृश्य परिधान देखने को मिलते हैं जिससे प्रतीत होता है कि साड़ी ग्रेसियो-रोमन पोशाक पालमिरेने से विकसित हुई है। यह पल्ला है (लपेट कर पहने जाने वाला परिधान जो झालरदार बाजू वाले लंबे गाउन के ऊपर पहना जाता था। यह विशेषतः रोमन मैट्रन द्वारा पहना जाता था) जिसे बाएं कंधे पर डाला जाता था। गंधार की कुछ महिलाएं इसके साथ-साथ अंतरिय भी पहनती थीं जो लंबाई में बड़ा होता था। यह लंबा अंतरिय कच्छा स्टाइल में पहना जाता था लेकिन एक हिस्सा बाएं कंधे तक जाता था और वहां पर पल्ला की तरह डाला जाता था। यह पूरा परिधान आज की दक्कनी साड़ी की तरह दिखता था। लंबे झालरदार बाज़ू नीचे से दिखते थे। यह रोमन लंबे गाउन स्टोला का छोटा स्वरूप प्रतीत होता था जो स्तनों को ढकने के लिए पहना जाता था। इसके साथ-साथ, ठेठ भारतीय उतरिय पहना जाता था, पीठ और दोनों कंधों के ऊपर। साड़ी के साथ उतरिय पहनने का चलन आज भी महाराष्ट्र के मछुआरों में देखा जा सकता है।

कुषाण काल में गंधार का यह पहनावा साड़ी की शुरुआत दर्शाता है और स्तनों को ढकने के लिए वस्त्रों के निर्माण का प्रयास दर्शाता है। यह विदेशी और देसी पोशाकों के मिश्रण की श्रेणी में आता है। अभिलेखों में हम फारसी प्रभावित स्तनमसूका (घुटनों या जांघों तक लंबा कुर्ता और अंतरिय के साथ पहने जाने वाला परिधान) का भी ज़िक्र पाते हैं। इसमें अंतरिय कच्छा स्टाइल में नहीं बल्कि लहंगा स्टाइल में पहना जाता था। साधारणतः स्कर्ट घाघरी जो साइड से सिली हुई होती थी और नाडे़ के द्वारा कमर पर बांधी जाती थी, भी देखने में आती है। एक लंबी बाज़ू वाली जैकेट और उतरिय के साथ चुस्त झालरदार पायजामा पहने हुए भी कुछ आकृतियां मिली हैं। प्राचीन काल में पायजामा ग्रीक और फारसी महिलाओं द्वारा पहना जाता था। इस प्रकार विशुद्ध देसी अंतरिय, उतरिय और कायाबंध कुछेक संशोधन के साथ मुख्य भारतीय परिधान के रूप में जारी रहे।

गुप्त काल (चौथी शताब्दी के प्रारंभ से 8वी शताब्दी ईसा बाद तक) : तीसरी सदी के मध्य में कुषाण साम्राज्य के पतन के फलस्वरूप उपजी अव्यवस्था के एक लंबे समय के बाद गुप्त साम्राज्य उत्तरी भारत में चौथी सदी के प्रारंभ में स्थापित हुआ। इस बीच कई नए राज्य पैदा हुए जिनके बारे में ऐतिहासिक जानकारी कम है। लेकिन पूरे उत्तरी भारत में शांति और एकता गुप्त साम्राज्य के उदय के बाद ही स्थापित हुई। गुप्त साम्राज्य दो सदियों से ज़्यादा समय तक टिका रहा और बहुत फैला। यह उत्तरी भारत के बड़े हिस्से और पूर्व में बल्ख तक फैला। पश्चिम में गुप्तों ने पूर्ण रूप से विदेशी हमलावरों, शक (जो गुजरात को 200 से अधिक साल से राज कर रहे थे) को पराजित किया।

इस काल में, पूर्व कालों की तुलना में सिले हुए वस्त्रों को ज़्यादा तरजीह दी जाती थी। उत्तरी भारत में अनुकूलित जलवायु के कारण सिले हुए वस्त्रों का इस्तेमाल ज़्यादा था, लेकिन दक्षिण में (जो कि आज भी दृश्यमान है) देसी अंतरिय, उतरिय और कायाबंध प्रचलन में थे। शरीर के निचले हिस्से में पहने जाने वाला परिधान सामान्यतः अंतरिय होता था और इसके साथ कभी-कभार कनकूका पहना जाता था जो कमीज़ की तरह घुसाया जा सकता था। कायाबंध परिधान को अपनी जगह पर टिकाए रखने के लिए पहना जाता था। उशनिसा (पगड़ी) धीरे-धीरे लुप्त हो रही थी और अब केवल कुछ सम्मानित लोगों, मंत्रियों और अन्य ऑफिसर तक ही सीमित हो रही थी।

पुरुष परिधान के संदर्भ में विदेशी असर को देखना आसान है जो कि हमलावरों और व्यापारियों के साथ आया। महिलाओं के परिधान के संदर्भ में विविध पोशाकें होने की वजह से एकदम सही स्रोत बता पाना मुश्किल है। इस काल में कटे और सिले हुए परिधानों के कई रूप फैशनेबल हुए, खासतौर से दरबार में। भारत और फारस के साथ व्यापारिक संबंधों के कारण दरबारों में विदेशियों को देखना एक आम बात थी। इस काल में फारस के साथ संबंध अपनी चरम सीमा पर थे। अंतरिय जो 18-36 इंच चौड़ा और 4-8 यार्ड लंबा होता था कई तरीकों से पहना जाता था। छोटा या लंबा अंतरिय कच्छा स्टाइल में या लहंगा स्टाइल में पहना जाता था। साधारणतः यह पिंडलियों तक की लंबाई का होता था। अंतरिय को पहनने का एक अन्य तरीका कच्छा स्टाइल और लहंगा स्टाइल दोनों में ही होता था। यह सामान्यतः बहुत छोटा अंतरिय होता था केवल जांघों तक की लंबाई का जिसे कलानिका कहा जाता था। इसे पहले कच्छा स्टाइल में पहना जाता था, और तीन गज की लंबाई का अंतिम सिरा तब एक छोटे लहंगे कि तरह लपेटा जाता था। साधारणतः शाही परिवार की महिलाएं एड़ियों तक की लंबाई का अंतरिय पहनती थीं और उच्च पदों की महिलाएं, पहरेदार छोटे अंतरिय पहनती थीं। लेकिन इन सभी रूपों मे अंतरिय नाभी से नीचे पहना जाता था। गुप्त काल और इससे पहले के कालों में मुख्य अंतर यह था कि कच्छा स्टाइल महिलाओं में कम प्रचलित हो गया और धीरे-धीरे इसकी जगह लहंगा या लुंगी ने ले ली। यद्यपि रानी और शाही परिवार की अन्य महिलाओं ने वही पुराना कच्छा स्टाइल ही अपनाए रखा जो आज भी महाराष्ट्र और दक्षिण भारत की महिलाओं द्वारा अपनाया जाता है।

परिधानों में धीरे-धीरे कई परिवर्तन हो रहे थे जैसे देसी कनकूका जो हरम (ज़नानखाना) के पहरदारों और परिचरों से संबंधित था, ने संभवतः मंत्रियों, पहरेदारों एवं दरबारियों द्वारा पहने जाने वाले लंबे या छोटे बाज़ू के ज़रीदार कुर्ते के फैशन को प्रेरित किया। इसी तरह अंतरिय से भैरनिवासिनी (स्कर्ट) विकसित हुआ जो जब एक तरफ से सीला गया तो टैब्यूलर हो गया और कमर पर चुन्नट डाल कर एवं कमरबंदी से टिका कर पहना जाने लगा। यह बेडौल (क्लमज़ी) सिली हुई स्कर्ट के प्राचीन रूपों में से एक था और आरंभिक कांस्य युग में जर्मनिक नस्ल द्वारा इस्तेमाल किया जाता था। भैरनिवासिनी जैन और बौद्ध भिक्षुणियों द्वारा सबसे पहले इस्तेमाल किया गया और इस विचार से उत्पन्न हुआ कि स्त्री का शरीर पापी है इसलिए उसे ढक कर रखा जाना चाहिए। कच्छा और लहंगा स्टाइल को बहुत विमोहक भी माना जाता था क्योंकि इस स्टाइल में अपरिहार्य रूप से अंतरिय को कूल्हों पर कस कर बांधा जाता है। जैन मत में खासतौर पर, स्त्री के शरीर को पूरी तरह से ढकने के लिए कपड़ों की असाधारण संख्या भिक्षुणियों द्वारा पहनी जाती थी। भैरनिवासिनी से घाघरी का का विकास होता है जो नाड़े के साथ बांधी जाती है। घाघरी एक तंग स्कर्ट थी जो छः फीट लंबी थी (यही लंबाई मूल अंतरिय की होती थी)। यह मुख्यतः गांव की महिलाओं द्वारा पहना जाता था। घाघरी का परिष्कृत स्वरूप जो शायद विदेशियों द्वारा इजाद किया गया का भी ज़िक्र मिलता है। घाघरी का यह परिष्कृत स्वरूप बहुत घेरदार होता था जो ऐसा प्रतीत होता है कि मुख्यतः नृत्यकियों द्वारा इस्तेमाल किया जाता था ताकि नृत्य के घुमावदार प्रभाव को इस परिधान की कई सलवटों द्वारा बढ़ाया जा सके। यह स्कर्ट आज भी कई ग्रामीण लोगों द्वारा पहनी जाती है जिसमें भारत के लंबाडी और बंजारा जिप्सी शामिल हैं।

भारतीय महिलाओं ने अपने शरीर के ऊपरी हिस्से को क्यों ढकना शुरू किया इस सवाल का जवाब इस खास समय में ढूंढना दिलचस्प होगा। इससे पहले कई शताब्दियों तक महिलाएं कमर से ऊपर तक के हिस्से पर कुछ पहने बिना ही इधर-उधर जाया करती थीं। महिलाआं द्वारा शरीर के ऊपरी हिस्से को ढकने के संभवतः दो कारण थे। पहला, राजा के दरबार में महिला परिचरों या अनुचरों को विदेशियों की सोहबत में डाल दिया गया जो शरीर के ऊपरी हिस्से में वस्त्र पहना करते थे। इन महिला परिचरों ने ज़रूर यह महसूस किया होगा कि सीने को खुला छोड़ देने के बजाए ढकना ज़्यादा आकर्षित होगा और उसके अनुसार वे विदेशियों की पोशाकों से प्रतिस्पर्द्धा करने लगीं। बौद्ध मत, जैन मत और ईसाईयत के प्रभाव के कारण भी ऐसा हुआ। इन मतों का विश्वास था कि शरीर पापी है और उसे ढक कर रखना चाहिए ताकि प्रलोभन, लालच या मोह को टाला जा सके। मध्यकालीन यूरोप में, इस काल के दौरान, कुछ इसी प्रकार के परिवर्तन हो रहे थे और महिलाओं ने अपने शरीर को सर से लेकर पांव तक ढकना शुरू कर दिया था। स्तनपट्टा वैदिक काल से ही इस्तेमाल हो रहा था, मुख्यतः स्तनों को थामे रखने के लिए न कि उन्हें ढकने के लिए। स्तनपट्टा के साथ-साथ एक देसी सिला हुआ वस्त्रा जिसे चोलाका, चोला, चोली, चोलिका, और कंचोलिका के नाम से जाना जाता है, जिसका ज़िक्र प्राचीन संस्कृत साहित्य में भी आता है, पहना जाता था। प्राचीन चोली कपड़े के एक आयताकार टुकड़े से बहुत साधारण तरीके से काटकर बनाई जाती थी जो गले से खुली हुई होती थी। यह भी प्राचीन स्वरूप है जो र्मिनक या ट्यूटोनिक नस्ल की महिलाओं द्वारा प्राचीन कांस्य युग में रक्षा के बतौर इस्तेमाल किया जाता था। जर्मेनिक नस्ल के संदर्भ में इसका इस्तेमाल ठंड से बचाव के लिए होता था और भारतीय संदर्भ में यह मोडेस्टी का उद्देश्य पूरा करता था। चोली में अगला विकास था नीचे के किनारे से पीछे मोड़ना और डोरी का इस्तेमाल, इसे बैक-लैस बनाने के लिए जोड़ा गया। यह बहुत कुछ आज राजस्थान और अन्य जगहों पर महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले परिधान की तरह ही था। एक अन्य चोली, कमर के थोड़ा ऊपर तक, पारदर्शी कपड़े की बनी होती थी और राजकुमारियों और अन्य शाही महिलाओं की पोशाकों में खासतौर से देखी जाती थी। इस चोली को सामने में बांधा जाता था जैसा आज कुछ चोलियों में किया जाता है। यह पीठ को पूरी तरह से ढक देती थी लकिन आगे का हिस्सा ज़्यादातर खुला हुआ रहता था।

मुगल साम्राज्यः हमारे वर्तमान पहनावे के कितने ही परिधानों में मुगल काल के दौरान असाधारण परिवर्तन हुए, कई नई पोशाकें चलन में आईं जो आज भी प्रचलन में हैं, नई-नई तरह की कढ़ाई-बुनाई की तकनीक विकसित हुई इत्यादि। गौरतलब है कि आजकल फैशन में चल रही चिकन कढ़ाई नूरजहां (मुगल शासक जहांगीर की बेगम) द्वारा ईजाद की गई मानी जाती है। आजकल चिकन कढाई के बने टॉप, सूट, साड़ी बहुत फैशन में हैं। चिकन शब्द का मतलब ही कढ़ाई होता है। लखनऊ की चिकन कढ़ाई बहुत मशहूर है। लखनऊ के अलावा दिल्ली, आगरा, बनारस, रामपुर, पटना, गया में चिकन का काम बहुत प्रचलन में आया लेकिन लखनऊ की चिकन कढ़ाई का कोई मुकाबला नहीं। इसी तरह शलवार-कमीज़ के इतिहास के बारे में कहा जाता है कि यह भारतीय उपमहाद्वीप में मध्य एशिया से आया। शलवार एक तुर्की शब्द है। 1947 में भारत विभाजन के बाद, साड़ी भारत का राष्ट्रीय परिधान बन गया और शलवार-कमीज़ पाकिस्तान का। लेनिक आज हम पाते हैं कि भारत में शलवार-कमीज़ पाकिस्तान से कहीं ज़्यादा प्रचलन में है।

16वीं शताब्दी में मुगलों के आने के साथ ही भारतीय परिधान के इतिहास का एक नया दौर शुरू होता है। मुगल काल में सिले-सिलाए वस्त्रों का चलन खूब था। इस काल में पायजामा, जामा , चोगा, अंगरखा फैशन में छाए रहे। जामा का इस्तेमाल किसी भी प्रकार के बाहरी वस्त्र के लिए किया जाता है। जामा का विकास जलवायु पर बहुत हद तक निर्भर करता है। ठंडे प्रदेशों में जामा मोटे कपड़े का होता है और गर्म प्रदेशों में हल्के कपड़े का। जामा में कुछ न कुछ नया जुडता ही रहता है। चोगा तुर्की का शब्द है। इसका मतलब होता है ‘लंबी बाज़ुओं वाली वेश-भूषा’। साधारणतः यह ढीला-ढाला होता है और बाहरी वस्त्रा के बतौर पहना जाता है। यह एशिया, रशिया, उत्तरी अफ्रीका और पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में पहना जाता था। चेागा ढीला-ढाला होता था ताकि उसे अंगरखा, जामा और कुर्ते के ऊपर पहना जा सके, अंगरखा को लंबी बाज़ुओं वाला गाउन या कोट कहा जा सकता है। अंगरखा के लिए भी कई नाम इस्तेमाल किए जाते हैं जैसे अबा, वसा इत्यादि। अंगरखी छोटी जैकेट की तरह के परिधान को कहते हैं और अंगरखा लंबा होता है। अंगरखा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत शब्द अंगरक्षक से मानी जाती है। बाद में जामा, अंगरखा, और चोगा, की जगह धीरे-धीरे चपकन (बाद में अचकन) और शेरवानी ने ले ली। यह पुरुषों द्वारा बाहरी वस्त्र के रूप में पहने जाने वाले मुख्य वेश-भूषा के बतौर उभरे। इन चुस्त जैकेट और कोट का विकास ब्रिटीश पहनावे का भारतीय पहनावे (जिसमें अब मुस्लिम पहनावा भी शामिल था) में घालमेल के होने से हुआ। लंबे बाज़ू, छोटे बाज़ू, या बिना बाज़ू की, कमर या उससे थोड़ा और नीचे तक की लंबाई की, ढीली या चुस्त, कई प्रकार की जैकेटों का विकास हुआ। इन जैकेटों को कई संस्कृत नाम दिए गए। बगलबंदी (जैसा कि नाम से ही प्रतीत होता है-बगल में बांधा जाने वाला)-यह चकदर जामा का छोटा रूप था और चौबंदी एवं लबेदा के जैसा ही था। अंगरखी, अंगरखा का छोटा रूप है। छोटे बाज़ू या बिना बाज़ू की जैकेट को सद्री नाम दिया गया जिसे वेस्टकोट की तरह पहना जाता था। इसके कई रूप थे -मिर्ज़ई, फतूही, फर्जी, खुर्दी और नादिरी। इनके फारसी नामों से प्रतीत होता है कि ये मध्य एशिया से आए हुए परिधान हैं।

अकबर के शासनकाल में फैशन में मौजूद परिधानों के विषय में काफी लिखित जानकारी मिलती है। अकबर के काल में भारतीय परिधानों और विदेशी परिधानों को मिला-जुला कर एक नया रूप और नाम देने का महत्वपूर्ण कार्य हुआ। अकबर ने साझी संस्कृति के इस औज़ार के द्वारा लोगों के बीच मौजूद मतभेदों, नफ़रत और दरारों को मिटाने का सराहनीय प्रयास किया जो कि सफल भी रहा। उसने वेशभूषा के स्तर पर समानता लाने की कोशिश की। गौरतलब है कि यह समानता का प्रयास लोगों की अपनी-अपनी पहचान को मिटाए और नष्ट किए बिना किया गया। उसने पोशाकों में कई तरह के संशोधन किए। कई पोशाकों के नाम भी बदले गए और नए नाम हिन्दी और फारसी या अरबी के शब्दों को जोड़कर या शब्दों के मिश्रण से रखे गए। मुगल साम्राज्य के पतन के बाद, 18वीं शताब्दी मे मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि फैशन पर कुछ खास ज़ोर नहीं था। इस दौर में पुरानी पोशाकों और परिधानों में संशोधन करने, उन्हें नया आकार देने, अधिक मनोरम और आरामदायक बनाने, पर ज़ोर था। हालांकि लखनऊ में फैशन के मामले में कई परिवर्तन हो रहे थें। 19वीं सदी तक आते-आते लखनऊ में साफ तौर से चौड़े पांयचे वाले पायजामों का फैशन चला जो कि महिला और पुरुष, दोनों ही द्वारा अपनाया गया। 19वीं सदी के फैशन की एक खास बात यह रही कि इसने दो समुदायों की महिलाओं और स्त्राी-पुरुष के परिधानों में मौजूद अंतर की तीक्षणता को कम किया। जिस तरह की स्थिति लखनऊ में बन रही थी कि पुरुषों की तरह महिलाएं कुर्ता और सीधा या चौड़े पांयचे वाला पायजामा पहनती थीं, उसी तरह की स्थिति पंजाब में बन रही थी कि स्त्राी-पुरुष दोनों छोटे कुर्ते पहनते थे लेकिन टाइट पायजामे के साथ। ठीक उसी समय, विभिन्न समुदायों की महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले वस्त्रों में मौजूद अंतर की तीक्षणता भी कम होने लगी।

नृत्य में पहनी जाने वाली पोशाक भी बाहरी प्रभाव से वंचित नहीं रही। उदाहरण के लिए नृत्य की कत्थक शैली, जिसे वाजिद अली शाह ने ईजाद किया था और जो सदियों से उत्तरी भारत में छायी हुई है, स्त्री-पुरुष नर्तक पेशवाज पहनते हैं जो पश्चिमी मुसलमान देशों में पहनी जाती थी। गहरे रंग और चमकदार, सुनहरे और रुपहले कपड़े, कसी कमीज, पजामा और पतला दुपट्टा और चुन्नरदार कुर्ते से शरीर के सभी अंग उभर उठते हैं और यह पोशाक मधुर गुंजायमान और हलके प्रवाहमान स्वरों से मेल खाती है। पेशवाज शब्द फारसी का है, मगर इसका मूल आधार ऋगवेद के शब्द पेशांसि में भी मिलता है। इस प्रकार हमने देखा कि किस तरह भारतीय परिधानों पर अलग-अलग सभ्यताओं और संस्कृतियों का प्रभाव पड़ता रहा। कितनी ही प्रकार की कढ़ाईयां, दुपट्टे, टोपियां, कुर्ते, शलवार-कमीज़, पायजामे इत्यादि सभी समुदायों के आपसी मेल-जोल के कारण विकसित हुए और यही वजह कि आज हम उनका इस्तेमाल सभी धर्मों और जातियों के लोगों द्वारा आमतौर पर देखते हैं। जैसा कि रामधारी सिंह दिनकर ने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखा है :

‘‘चीरा और पाग मुसलमानों ने हिन्दुस्तानियों से लिया और बदले में, कसे-चुस्त पायजामे राजपूतानियों ने मुस्लिम-नारियों से लिये। इस्लाम की परम्परा रेशम, मलमल और कीमती जेवरों के विरूद्ध थी, लेकिन, भारत में बस जाने पर मुसलमानों ने इन्हें भी अपना लिया। ऊंचे तबकों के हिन्दुओं ने मुसलमानी खान-पान और पोशाकें, खुशी-खुशी, अपना लीं। बाकी तबकों में भी, हिन्दुओं की पगड़ी मुसलमानों ने और मुसलमानों की अचकन हिन्दुओं ने अपनायी।’’

डॉं सुभाष चन्द्र ‘साझी संस्कृति’ में लिखते हैं :
‘‘भारतीय पोशाक में भारी तबदीली आयी। शक और कुषाण लोगों ने यहां ईरानी पद्धति चलानी चाही और विफल रहे। लेकिन मुगल दरबारों ने एक नया नमूना पेश किया और मुगल पोशाक पहने मानसिंह और महावतखां में फर्क कर सकना कठिन हो गया। यह अत्यंत हर्षजनक है कि मुगल सल्तनत के कट्टर दुश्मन राणा प्रताप और शिवाजी तक भव्य मुगलें पोशाकें पहनते थे। मुगलों ने जो कुछ शुरू किया था उसे अवध के नवाबों ने सर्वांग सम्पन्न बनाया और भारतीय सरकार ने अचकन तथा पजामा को अपनी राष्ट्रीय पोशाक मान लिया। तुर्क, पठान और मुगलों, द्वारा प्रचलित जुराब और मोजा, जोरा और जामा, कुर्ता और कमीज, ऐचा, चोगा और मिर्जई दिल्ली और लखनऊ के दरबारों में भी उसी प्रकार पहनी जाने लगीं, जैसे बंगाल के पंडितों द्वारा।

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